SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 349
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बुद्धि तजती कुपित मनुज को ३२६ मुझे तो इन ४६६ सौतों को उनके पितृपक्ष के लोगों सहित समाप्त करना असम्भव सा प्रतीत होता है।" ___ "अच्छा, यह बात है ? देखना, बन्दा क्या करता है ?" यों कहता हुआ सिंहसेन उसी समय वहाँ से चल दिया। · अहंकार और मोह के आवेश में विवेकमूढ़ बना हुआ राजा सिंहसेन मन ही मन युक्ति सोचकर एक विशाल लाक्षागृह का निर्माण कराने लगा। जब लाक्षागृह बन कर तैयार हो गया तो वहाँ उसने एक महोत्सव के आयोजन की घोषणा करवाई । उस महोत्सव में भाग लेने के लिए उन ४६६ रानियों और उनके समस्त पीहर वालों को भी आमंत्रित किया गया। खूब धूम-धाम से महोत्सव सम्पन्न हुआ। रात हुई । जब सभी निद्रामग्न हो गए, तब उस लाक्षागृह में चुपचाप आग लगवा दी गयी। देखते ही देखते वह महल धू-धू करके जलने लगा। उसमें सोई हुई ४६६ रानियाँ तथा उनके सभी पीहर वाले जलकर भस्म हो गये। देखिए, मोह और ईर्ष्या के प्रकोप का कितना भयंकर परिणाम आया ! राजा सिंहसेन और सोमारानी ने इस रौद्रध्यान के फलस्वरूप बुद्धिभ्रष्ट होकर कितने भयंकर पापकर्म बाँधे ! यही हाल लोभ, मद, मत्सर, ईर्ष्या, अहंकार आदि मनोविकारों के कुपित होने का है । इन सबके कुपित होने पर बुद्धि भ्रष्ट हो ही जाती है, जिसके कारण अपना और दूसरों का भी सर्वनाश हो जाता है। बन्धुओ ! इसीलिए गौतम महर्षि ने कुपित जीवन से सावधान करते हुए कहा है 'चएइ बुद्धी कुवियं मणुस्सं ।' आप भी इन क्रोधादि मनोविकारों को कुपित होने से बचाइए और अपना जीवन शान्त और स्वस्थ बनाइए । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy