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अरुचि वाले को परमार्थ-कथनःविलाप
धर्मप्रेमी बन्धुओ !
आज मैं आपके समक्ष एक महत्वपूर्ण सत्य का उद्घाटन करना चाहता हूँ, जिसका साधकजीवन के हर मोड़ पर ध्यान रखना आवश्यक है। गौतम कुलक का यह इकत्तीसवां जीवनसूत्र है। इसमें एक सत्य का निदश महर्षि गौतम ने किया
'अरोइ अत्थं कहिए विलावो' 'जिसकी अरुचि है, उसे परमार्थ कहना विलाप है।' वक्ताओं की बाढ़
आज तो संसार में प्रायः वक्ताओं की बाढ़-सी आ गई है। भारतवर्ष में तो आपको गली-गली में दार्शनिक और उपदेश देने वाले, तत्त्वज्ञान बघारने वाले, बिना पूछे सलाह देने वाले, अपने परिवार में सदस्यों को जबरन तत्त्वज्ञान की घुटी पिलाने वाले, समाज में लालबुझक्कड़ बनकर परमार्थ, वेदान्त एवं निश्चयनय की ऊँची-ऊँची बातें कहने वाले मिल जाएँगे। परन्तु दुर्भाग्य है कि वे वक्ता या उपदेशक अथवा सलाहकार अपने श्रोताओं की परख नहीं करते, अपने श्रोताओं की भूमिका को नहीं देखते, अपने श्रोताओं की रुचि-अरुचि की जाँच पड़ताल नहीं करते और धड़ल्ले से उपदेशवर्षा, परामर्श की वृष्टि और परमार्थ कथन की धारा बहाते रहते हैं। जिसका नतीजा यह होता है कि उन वक्ताओं या उपदेशकों अथवा उन परामर्शकों के प्रति लोकश्रद्धा का ह्रास होता जाता है। उनके उपदेशों के अनुसार न चल सकने के कारण उन श्रोताओं को यथेष्ट लाभ, पर्याप्त सन्तोष नहीं होता, जिससे वे उनके विरोधी बन जाते हैं। ऐसे श्रोताओं पर उन वक्ताओं की उपदेशधारा का कोई असर नहीं होता। इस विषय में मुझे मुद्गशैल का एक शास्त्रीय उदाहरण याद आ रहा है
गोष्पद नामक वन में एक बहुत ही छोटा-सा पर्वत था, जिसका नाम थामुद्गशैल । एक था पुष्करावर्त महामेघ, जो बहुत ही लम्बा-चौड़ा था । कहते हैं, उस का फैलाव जम्बूद्वीप के बराबर होता है।
एक कलहप्रिय व्यक्ति इन दोनों को लड़ा-भिड़ाकर तमाशा देखना चाहता
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