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________________ अरुचि वाले को परमार्थ कथन : विलाप ३३१ था । अपने स्वभावानुसार वह पहले मुद्द्वैशल के पास आकर कहने लगा- ' - "भाई मुद्गशैल ! दुनिया के लोग बड़े ईर्ष्यालु हैं । वे किसी की महिमा सुन नहीं सकते । एक दिन की बात है, मैंने कतिपय व्यक्तियों के सामने तुम्हारी प्रशंसा की कि मुद्गशैल छोटा-सा पर्वत होते हुए भी बहुत सुदृढ़ है, वज्रदेही है, उस पर कितना ही पानी क्यों न पड़े, उसका कुछ भी नहीं बिगड़ता । बड़े-बड़े पहाड़ टूट-टूटकर गिर पड़ते हैं लेकिन वह सदा अखण्ड रहता है ।" मेरे द्वारा इस प्रकार की गई प्रशंसा पुस्करावर्त मेघ को सहन न हुई । उसके अहंकार पर चोट लगी । फलतः अपने मुँह मियाँ-मिट्ठू बनते हुए उसने कहा - "अरे ! उस मुद्गशैल की क्या औकात है, मेरे सामने टिकने की ? वह तुच्छ पहाड़ तो मेरी एक धारा को भी नहीं सह सकता । मैंने तो बड़े-बड़े पर्वतों को अपनी धारा से चकनाचूर कर दिया है । तुमने मेरा सामर्थ्य अभी देखा नहीं मालूम होता है ।" उसकी बात सुनते-सुनते मुद्गशैल आक्रोश से भर उठा । वह तमककर बोला - "देखोजी ! पुष्करावर्त मेरे सामने उपस्थित नहीं है । अतएव अधिक कुछ कहना व्यर्थ है । इतना अवश्य कहूँगा कि यदि पुष्करावर्त सात दिन तक लगातार पानी बरसाता रहे, सारी धरती जलमग्न करदे किन्तु यदि वह मेरा तिलतुष मात्र भी बिगाड़ दे तो मैं अपना नाम बदल दूँगा ।" कलहप्रिय व्यक्ति वहाँ से चलकर पुष्करावर्त के पास आया । उसके सामने अपनी ओर से नमक-मिर्च लगाकर मुद्गशैल के घमंड की बात कह डाली और उसका क्रोध भड़का दिया । पुष्करावर्त मेघ ने रोष में आकर सात दिन तक निरन्तर जलधारा प्रवाहित की । उसके बाद खुश होकर मन ही मन सोचने लगा- “अब तो उस घमंडी का नामोनिशान भी नहीं मिलेगा, वह तो गलकर टुकड़े-टुकड़ े हो गया होगा ।" वर्षा बन्द हुई । सारा पानी बह गया । जमीन पुनः दिखलाई देने लगी । पुष्करावर्त मेघ उस कलहप्रिय व्यक्ति के पास गया और बोला - "बेचारे उस मुद्गशैल का तो पता लगाओ, उसकी क्या हालत होगई होगी अब ?" दोनों मुद्गशैल के पास पहुँचे । देखा तो आश्चर्यान्वित होकर परस्पर कहने लगे – “अरे न तो इसका कोई हिस्सा टूटा है और न ही कुछ गला - सड़ा है । इस पर तो मेरी जलधारा का जरा भी प्रभाव परिलक्षित नहीं हो रहा है ।" पुष्करावर्त मेघ का अहंकार चूर-चूर हो गया । बन्धुओ ! इस संसार में अधिकतर श्रोता ऐसे होते हैं जिनकी आत्मा पर वक्ता के उपदेश, कथन या परामर्श का कोई भी असर नहीं होता । वे मुद्गर्शल की तरह उनकी उपदेशवृष्टि से जरा भी नहीं भीगते । उनके मन-मस्तिष्क में वक्ता की बात जरा भी स्पर्श नहीं करती । इसीलिए संत कबीर सीधी चोट करते हैं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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