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बुद्धि तजती कुपित मनुज को ३०७
स्थिरबुद्धि कह सकते हैं । स्वप्न में बाह्य आँखें बंद होते हुए भी मनुष्य स्वप्न के दृश्यों को प्रत्यक्ष-सा देखता है । अंग्रेजी में इसी आशय की एक कहावत है । बुद्धि निर्मल एवं स्थिर होने से मनुष्य अप्रत्यक्ष को भी देख सकता है, दूरदर्शी बन सकता है । इसी सेहत कार्याकार्य या शुभाशुभ का वह शीघ्र विवेक कर सकता है । किसी कार्य के परिणाम को वह पहले के ही जान लेता है । इसी कारण स्थिरबुद्धि व्यक्ति का प्रत्येक सत्कार्य सफल होता है । प्रत्येक परिस्थिति में उसकी स्थिरबुद्धि कोई न कोई यथार्थ हल निकाल लेती है । आत्मा के प्रकाश को वही बुद्धि ग्रहण करती है । उसी से मिथ्या धारणाएँ, अन्धश्रद्धा, अज्ञानता आदि नष्ट होती हैं । उसी की सहायता से मनुष्य सत्कार्य में प्रवृत्त होता है । शुक्राचार्य ने इसी बुद्धि की उपयोगिता को लक्ष्य में करके कहा है—
लोकप्रसिद्धमेवैतद् वारिवह्न नियामकम् । उपायोपगृहीतेन तेनैतत् परिशोष्यते ॥
यह जगत्प्रसिद्ध है कि जल से अग्नि शान्त हो ( काबू में आ जाती है, किन्तु यदि बुद्धिबल से उपाय किया जाए तो अग्नि जल को भी सोख भी लेती है ।
सृष्टि में जो कुछ चमत्कार हम देखते हैं, वह सब मानवबुद्धि का ही है । मनुष्य बुद्धिबल से बड़े से बड़े कष्टसाध्य रचनात्मक कार्य कर सकता है, बड़े से बड़े संकटों को पार कर सकता है । मुद्राराक्षस में महामात्य चाणक्य की प्रखर बुद्धि का वर्णन आता है । जिस समय लोगों ने चाणक्य को बताया कि सम्राट की सेना के बहुत से प्रभावशाली योद्धा उसका साथ छोड़कर चले गए हैं और विपक्षियों से मिल गए हैं, उस समय उस प्रखर बुद्धि के धनी ने बिना घबराये स्वाभिमानपूर्वक कहा
एका केवलमर्थसाधनविधौ सेनाशतेभ्योऽधिका । नन्दोन्मूलनदृष्टिवीर्यमहिमा बुद्धिस्तु मा गान्मम ॥
— जो चले गये हैं, वे तो चले ही गये हैं । जो शेष हैं, वे भी जाना चाहें तो चले जाएँ, नन्दवंश का विनाश करने में अपने पराक्रम की महिमा दिखाने वाली और कार्य सिद्ध करने में सैकड़ों सेनाओं से अधिक बलवती केवल एक मेरी बुद्धि न जाए; वह मेरे साथ रहे, इतना ही बस है ।"
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वास्तव में सूक्ष्म और स्थिरबुद्धि का मानव जीवन के श्रेय और अभ्युदस में बहुत बड़ा हाथ है । इसमें कोई सन्देह नहीं । स्थिरबुद्धि के अभाव में मनुष्य संकटों के समय किं व्यविमूढ़, भयभ्रान्त, एवं हक्का-बक्का होकर रह जाता है । जिस hat बुद्धि स्थिर नहीं होती, वह सभी कार्य उलटे ही उलटे करता चला जाता है, वह विवेकभ्रष्ट होकर अपना शतमुखी पतन कर लेता है । स्थिरबुद्धि के अभाव में मनुष्य अपने जीवन में भी शांति, सौख्य और निश्चिन्तता नहीं प्राप्त कर पाता, उसका
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