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बुद्धि तजती कुपित मनुज को धर्मप्रेमी बन्धुओ !
आज मैं आपके समक्ष ऐसे जीवन की चर्चा करने जा रहा हूँ, जिस जीवन में बुद्धि-स्थिरबुद्धि पलायन कर जाती है। ऐसे जीवन वाला व्यक्ति स्थिरबुद्धि से दरिद्र हो जाता है । उसके पास स्थिरबुद्धि टिकती नहीं। ऐसे जीवन का नाम हैकुपित जीवन । यह तीसवाँ जीवनसूत्र है गौतम कुलक का। इसमें महर्षि गौतम ने साफ-साफ बता दिया है
'चएइ बुद्धी कुवियं मणुस्सं' 'कुपित मनुष्य को बुद्धि-स्थिरबुद्धि छोड़ देती है।' स्थिरबुद्धि के अभाव में
- मैं पूर्व प्रवचनों में स्थिरबुद्धि का महत्व बता चुका हूँ । स्थिरबुद्धि के अभाव में मनुष्य के सारे साधन और सारे प्रयत्न बेकार हो जाते हैं। एक मनुष्य के पास पर्याप्त धन हो, शरीर में भी ताकत हो, उसका परिवार भी लम्बा-चौड़ा हो, कुल भी उच्च हो, आयुष्यबल भी हो, इन्द्रियाँ तथा अंगोपांग आदि भी ठीक हों, बाह्य साधन भी प्रचुर हों, और भाग्य भी अनुकूल हो, लेकिन बुद्धि स्थिर न हो तो वह न लौकिक कार्य में सफल हो सकता है, न आध्यात्मिक कार्य में । अथर्ववेद के एक सूक्त में मानव मस्तिष्क की दिव्यता बताते हुए कहा है
तद्वा अथर्वणः शिरो देवकोषः समुब्जितः ।
तत्प्राणो अभिरक्षति शिरो अन्नमयो मनः ॥ इसका भावार्थ यह है कि मनुष्य का वह सिर मुंदा हुआ देवों का कोष है। प्राण, मन और अन्न इसकी रक्षा करते हैं ।
केवल शिव ही 'त्रिलोचन' नहीं होते, प्रत्येक मनुष्य के पास एक तीसरा नेत्र होता है, जिसे हम दिव्यदृष्टि कह सकते हैं । वह मस्तिष्क में ही रहता है। मनुष्य के मस्तिष्क से दैवीबल प्रकट होता है । वस्तुतः इस तीसरे भीतरी नेत्र को हम सूक्ष्म एवं
१. प्रवचन नं० २४ और २५ में स्थिरबुद्धि के महत्त्व पर काफी प्रकाश डाला गया
-संपादक
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