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यत्नवान मुनि को तजते पाप : २
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है, न बोलने की क्रिया से अत्यन्त निवृत्त हो सकता है, और न ही चिन्तन की क्रिया से सर्वथा विरत ! इसलिए यतना (विवेक) का तकाजा यह है कि साधक खाए-पीए, सोए-जागे, उठे-बैठे, बोले, चिन्तन करे या कोई भी क्रिया या प्रवृत्ति करे, उसमें 'अति' को छोड़ दे, न निवृत्ति की अति हो, न प्रवृत्ति की अति हो। परन्तु एक बात का पूरा ध्यान रखा जाये कि जैनधर्म में संख्या की अपेक्षा 'गुणवत्ता' का अधिक महत्त्व है, यहाँ 'क्वांटिटी' की अपेक्षा 'क्वालिटी' का मूल्य ज्यादा है। इसलिए प्रत्येक क्रिया या प्रवृत्ति, फिर चाहे सामायिक, पौषध, तप' आदि उच्च क्रिया हो या प्रतिलेखन, प्रमार्जन, उच्चारादि, परिष्ठापन, सेवा आदि जैसी हलकी मानी जाने वाली क्रिया हो, वह भले ही थोड़ी मात्रा में हो, पर हो उत्कृष्ट ढंग से, सम्यक् रूप से । जैसे बौद्ध धर्मग्रन्थ संयुत्त निकाय में बताया है कि 'बुरी तरह करने की अपेक्षा न करना अच्छा है, क्योंकि बुरी तरह करने से पछताना पड़ता है । जो करणीय कार्य है, उसे अच्छी तरह करना ही अच्छा है क्योंकि अच्छी तरह करने पर बाद में पश्चात्ताप नहीं होता ।२ वर्तमान भौतिकवादी युग में विस्तार को महत्त्व दिया जाता है, किन्तु अध्यात्मजगत् में उत्कृष्टता का महत्त्व है । यहाँ कितना काम किया ? इसका महत्त्व नहीं, किन्तु जो करणीय कार्य है, उसे किस ढंग से किया ? इसका बहुत महत्त्व है। यही यतना का विवेक रूप अर्थ है ।
निष्कर्ष यह है कि प्रवृत्ति बहुत नहीं, किन्तु उत्कृष्ट हो, सम्यक् हो । मोक्षमार्ग के रत्नत्रयरूप तीन साधनों के साथ हमारे यहाँ सम्यक् शब्द लगा है। बौद्ध धर्म के अष्टांग सत्य में भी प्रत्येक के साथ सम्यक् शब्द लगा है । यों तो साधकजीवन की सभी क्रियाएँ नीरस-सी लगती है, किन्तु नीरस को सरस बनाना साधक की अपनी मनोवृत्ति तथा अपनी यतनायुक्त प्रवृत्ति पर निर्भर है । अतः छोटी-सी एवं तुच्छ मानी जाने वाली क्रिया में समग्र प्राण उड़ेल देने तथा यतना की प्राणवायु फूंक देने पर वह महत्त्वपूर्ण एवं उत्कृष्ट बन जाएगी। यही विवेकरूप यतना का चमत्कार है।
बन्धुओ ! मैं इस जीवनसूत्र के विवेचन को यहीं समेट लेना चाहता था, लेकिन अभी यतना के अन्य अर्थों पर भी हमें विचार करना है, इसलिए अगले प्रवचन में उन पर प्रकाश डालने का प्रयत्न करूंगा । आशा है, आप यतना के विविध रूपों को समझकर अपने जीवन को कलापूर्ण बनाने का पुरुषार्थ करेंगे।
१ 'सामाइयस्स अणवद्वियस्स करणया' 'सामाइयं सम्म काएणं न फासियं, न पालियं
न तीरियं, न किट्टियं, न सोहियं, न आराहियं, आणाए अणुपालियं न भवइ ।' ___ पोसहस्स सम्म अणणुपालणया।' २ अकतं तुक्कटं सेय्यो, पच्छा तपति दुक्कटं । कतं च सुकत सेय्यो यं कस्वा नानुतप्यति ॥
-संयुत्त० १।२।८
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