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आनन्द प्रवचन : भाग ६
के महान् दार्शनिक कन्फ्यूशियस से येन हुई ने पूछा- 'मैं मन पर संयम कैसे कर सकता हूँ ?'
कन्फ्यूशियस बोला-'मैं तुम्हें एक सीधा-सा उपाय बता देता हूँ। अच्छा यह बताओ कि तुम कानों से सुनते हो ? आँखों से देखते हो ? जीभ से चखते हो ? नाक से सूंघते हो ?' येन ने कहा-'हाँ ।' कन्फ्यूशियस बोला-'मैं नहीं मान सकता कि तुम कानों से सुनते, आँखों से देखते, जीभ से चखते या नाक से सूंघते हो । तुम मन से सुनते, देखते, चखते और सूंघते हो। आज से यह काम करो कि तुम मन से सुनना, देखना, चखना, सूंघना, छूना आदि बन्द कर दो केवल उसी इन्द्रिय से उसके योग्य विषय का ग्रहण करो, मन का स्पर्श उसे न होने दो।" ।
बहुधा लोग उस-उस इन्द्रिय से ही उस विषय को ग्रहण नहीं करते, किन्तु मन से ही सुनने, देखने, चखने, सूंघने और स्पर्श करने का काम करते हैं। मन में जो विविध संस्कार जम गये हैं, प्रत्येक इन्द्रिय के द्वारा विषय ग्रहण करते समय टाँग अड़ाने के, बीच में पंचायत करने के, मन के उन संस्कारों या आदतों को छुड़ाना है।
मैं एक उदाहरण द्वारा इसे समझाता हूँ। माँ ने बेटे से कहा- 'समझता ही नहीं, निरा मूर्ख है।' इसे पुत्र ने सुना । इसी प्रकार उस लड़के के किसी विरोधी या शत्रु ने कहा- 'समझते ही नहीं, बड़े मूर्ख आदमी हो।' इसे भी उसने सुना। शब्दावली और श्रवण में कोई अन्तर नहीं है, मगर मन जब दोनों से हुई बात के साथ घुस जाएगा, तब परिणाम दो तरह के आयेंगे। माँ के द्वारा कहे गये वे शब्द प्रिय लगेंगे, लेकिन वे ही शब्द शत्रु के द्वारा कहे जाने पर सुनते ही वह आग-बबूला हो उठेगा । शब्दों को केवल कानों से ही सुना जाता तो कोई अन्तर नहीं आता, मगर अन्तर इसलिए आ गया कि सुनने वाले ने मन से, पूर्वसंस्कारों से सुना।
निष्कर्ष यह है कि इन्द्रियों से ग्रहण किया हुआ कोई भी विषय अपने आप में प्रिय या अप्रिय नहीं होता, किन्तु मन जब उसके साथ जुड़ जाता है तो प्रिय या अप्रिय की कल्पना करके एक पर राग और एक पर द्वेष करता है। चिन्तन से निवृत्ति का प्रतिसंलीनता का यह महान् सूत्र है, इस यतना (विवेक) का अभ्यास करने पर मन पर संयम स्वाभाविक हो जाएगा, इन्द्रियों से विषयों को आवश्यकतानुसार ग्रहण करने पर भी उनके साथ मन के न जुड़ने से राग-द्वेष, और उसके फलस्वरूप कर्मबन्ध नहीं होगा। क्योंकि कर्मबन्ध के मूल कारण राग और द्वेष ही हैं।' प्रवृत्ति चाहे थोड़ी हो पर हो उत्कृष्टरूप से
वस्तुतः वर्तमान युग का साधक न तो प्रवृत्ति से अत्यन्त निवृत्ति कर सकता
-उत्तराध्ययन ३२७
१ (क) रागो य दोसो वि य कम्मबीयं (ख) इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ ।
तयोर्न वशमागच्छेतौ ह्यस्य परिपन्थिनौ ॥
-गीता
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