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आनन्द प्रवचन : भाग &
पहुँचता है, उस पर; इसी प्रकार अयतनाशील साधक का मन भी नये से नये पदार्थ में रस खोजने हेतु भटकता है। जैसे वैभवशाली गृहस्थ थाली की शोभा तभी मानता है, जब उसमें अनेकों प्रकार के चटपटे, सरस, स्वादिष्ट व्यंजन परोसे गये हों, जरा-जरा सा सबका स्वाद चखने को मिले, इसी प्रकार अयतनाशील साधक का भी रसलोलुप चंचल मन विविध खाद्य-पदार्थों में रस ढूंढ़ता फिरेगा, विविध रसों को अपनी दैनिक आवश्यकता मान बैठेगा।
जिन गृहस्थों के पास साधन-सुविधाएँ हैं, वे नई-नई डिजाइनों के वस्त्र जमा करते रहते हैं, और कभी किसी को एवं कभी किसी को पहनकर सुन्दर दिखलाने की अपनी लालसा पूरी करते हैं, वैसे ही अयतनाशील बनकर साधक भी करता रहे तो उसके संयम का थोड़े ही दिनों में दिवाला निकल जायगा। मन संसार के नये-नये मनमोहक चित्ताकर्षक पदार्थों को देखकर ललचाया करेगा, न तो वह उन सबको प्राप्त कर सकेगा और न ही उपभोग। केवल मन को झूठ-मूठ बहलाकर वह अपने त्याग
और संयम पर काला धब्बा लगाता रहेगा। यतना : मन की आवश्यकताओं पर चौकीदारी
जैसे शरीर और इन्द्रियों की आवश्यकताओं पर चौकीदारी रखना साधक के लिए आवश्यक है, वैसे ही मन की आवश्यकताओं पर भी चौकीदारी रखना अत्यावश्यक है।
मन की मुख्य खुराक या आवश्यकता है-मनन-चिन्तन । जब साधक जागृत नहीं रहता तो उसका मन विकृत मनन-चिन्तन में लग जाता है।
मन कभी खाली नहीं रहता। समुद्र की तरह हर समय तरंगायित रहता है। जैसे समुद्र की असंख्य लहरें होती है वैसे ही मन की ये विकृत लहरें भी अगणित प्रकार की हैं।
मन की ये विकृत लहरें 'आवेग' कहलाती है। मुख्यतया ये आवेग ४ प्रकार के होते हैं-(१) क्रोध, (२) मान, (३) माया, और (४) लोभ ।
राग, द्वष, मोह आदि का इन्हीं में अन्तर्भाव हो जाता है। ये अपनी-अपनी मात्रा के अनुसार असावधान मानस को प्रभावित करते हैं। मात्राओं को चार भागों में विभक्त किया जा सकता है-मन्द, तीव्र, तीव्रतर, तीव्रतम । हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा (घृणा) और काम-विकार ये उप-आवेग हैं। आवेगों की अपेक्षा उप-आवेगों की शक्ति कम होती है। क्रोध आदि की शक्ति तीव्र होती है, ये व्यक्ति की शारीरिक और मानसिक स्थिति को प्रभावित करने के उपरान्त उसके आत्मिकगुणों-- सम्यग्दर्शन और आत्मनियन्त्रण को भी प्रभावित करते हैं, जबकि भय आदि उप-आवेग व्यक्ति के आन्तरिक गुणों को इतना साक्षात प्रभावित नहीं करते, जितना शारीरिक और मानसिक स्थिति को करते हैं।
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