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२७२ आनन्द प्रवचन : भाग ६
अनुपयोगी वस्त्रों से सुसज्जित होना सभ्य व्यक्ति का लक्षण माना जाने लगा । ज प्रान्त के लोग प्राचीनकाल में एक अधोवस्त्र और एक चादर वस्त्र के रूप में पहनते थे, आज वहाँ के लोग भी पाश्चात्य सभ्यता की चकाचौंध में पड़कर पश्चिम का अन्धा अनुकरण करने लग गये हैं । इस गर्म देश में भी वे लोग कोट - पैंट के बिना रह नहीं सकते ।
आज बहुत-से लोग तो प्रदर्शन के लिए वस्त्र पहनते हैं । उस पर भी वे आवश्यकता से कई गुना अधिक वस्त्रों का संग्रह रखते है । मगर यतनाशील साधक अत्यन्त अल्प वस्त्रों से ही अपना निर्वाह करता है ।
जीवन निर्वाह के लिए पाँचवीं आवश्यक वस्तु है - पात्र और छठी वस्तु-मकान है । ये दोनों वस्तुएँ कृत्रिम उपायों से उपलब्ध होती हैं । पात्र (बर्तन) और मकान आवश्यक होते हुए भी साधक इन्हें फैशन और प्रदर्शन की दृष्टि से ग्रहण नहीं करेगा, न ही कृत्रिम आवश्यकता बढ़ाकर इनका संग्रह करेगा । वह शास्त्रोक्त मर्यादा अथवा अपने विवेक के अनुसार ही भोजन, वस्त्र, पात्र और मकान का ग्रहण आवश्यकता पड़ने पर करेगा । साधु मर्यादा के अनुसार किसी समय ये आवश्यक पदार्थ न मिलने पर भी साधु अपने मन में शोक या आर्त्तध्यान नहीं करेगा, और न ही मनोज्ञ सुन्दर वांछित पदार्थ मिलने पर मन में गर्व करेगा । वह अदीनवृत्ति से ही इन्हें ग्रहण करेगा ।
खेद है कि आज साधुवर्ग के जीवन में भी गृहस्थ लोगों की देखा-देखी शानशौकत बढ़ाने और प्रदर्शन की भावना प्रायः घर कर गई है । यतना को उन्होंने शास्त्र की वस्तु मानकर ताक में रख दिया है। मगर जब आवश्यकता वृद्धि के कारण परतन्त्रता बढ़ जाती है, संयम के तंग ढीले पड़ने लगते हैं, तब आवश्यकताएँ बढ़ाए हुए शुकराजर्षि की तरह मोहनिद्रा से वे जागते है । किन्तु एक बात निश्चित है कि ज्यों-ज्यों जीवन के लिए वस्तुएँ कम आवश्यक होती जाती हैं त्यों-त्यों वे अधिकाधिक कृत्रिम उपायों से उपलब्ध होती हैं । इस कारण उनका मूल्य भी बढ़ता जाता है । परन्तु सादगी और सर्वसुलभ आवश्यक पदार्थों से जीवन निर्वाह करने में जो सुखशान्ति और स्वतन्त्रता है, वह तड़क-भड़क, फैशन और बहुमूल्य दुर्लभ पदार्थों से जीवन चलाने में कहाँ ? पर इसे धन एवं सत्ता के मद में ग्रस्त लोग कहाँ समझते हैं ? वे प्रतिष्ठा का भूत दिमाग में लिए फिरते हैं । कहते तो यों हैं कि पेट के लिए यह सब करना पड़ता है, परन्तु मन में पोजीशन की धुन सवार रहती है । क्या बड़ेबड़े आलीशान बंगले, कार, कोठी, रेडियो, ट्रांजिस्टर, टेरेलिन, नाइलोन या टेरीकोट आदि पेट के लिए आवश्यक हैं ? प्रतिष्ठा और शान-शौकत की होड़ में मनुष्य कृत्रिम आवश्यकताएँ बढ़ाता है । अगर साधु भी इन अनावश्यक पदार्थों को ग्रहण करना चाहता है तो उसे भी धनिकों की गुलामी करनी पड़ेगी, या उनकी ठकुरसुहाती कहनी पड़ेगी । मगर यतनाशील साधक के जीवन की शोभा आवश्यताएँ बढ़ाने में नहीं,
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