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२८४ आनन्द प्रवचन : भाग ६ उस दुःख में वैद्य द्वारा किये गये इलाज को भूल जाता है, इतना ही नहीं अब वैद्य उसका शत्रु हो जाता है । इसी स्वार्थी मनोवृत्ति का चित्रण वृन्दकवि ने एक दोहे में किया है
स्वारथ के सब ही सगे, बिन स्वारथ कोऊ नाहिं ।
जैसे पंछी सरस तरु, निरस भये उड़ जाहि ॥
सच है, स्वार्थ होता है, तब सभी लोग हाँ जी, हाँ जी कहकर मधुर-मधुर बोलते हैं, उस व्यक्ति की खब प्रशंसा करते हैं, चापलूसी करते हैं, उसे दानवोर, धर्मात्मा, पुण्यवान और प्रतिष्ठित श्रेष्ठ पुरुष कहकर बखानते हैं, उसके कार्य-कलापों की सराहना करते हैं, उसे उच्च पद एवं अभिनन्दन पत्र देते हैं, लेकिन जब उसके पास किसी कारणवश धन नहीं रहता, वह उन स्वार्थियों को देने लायक स्थिति में नहीं रहता, जब उसके दुःख के दिन आते हैं और वह दुर्दैवग्रस्त हो जाता है, तब उसे छोड़ने में, दुरदुराने और दुत्कारने में जरा भी देर नहीं करते । कवि के शब्दों में एक भूतपूर्व धनसम्पन्न, किन्तु वर्तमान में दरिद्र की आपबीती सुनिये--
हैं बनी-बनी के सब साथी, बिगड़ी में हमारा कोई नहीं। धनवालों के हमदर्द सभी, निर्धन का सहारा कोई नहीं । थे दोस्त हमारे दुनिया में जब, पास बहुत-सा पैसा था । जब वक्त गरीबी का आया, दिलदार दुलारा कोई नहीं । हमदर्द हजारों बन जाते, जब तक पैसे की ताकत है।
समय बुरा आ जाता है तब बनता प्यारा कोई नहीं।
कितना मार्मिक चित्रण है, स्वार्थी मानव की मनोवृत्ति का ! वास्तव में मनुष्य ही क्या, पशु-पक्षी भी उस वृक्ष, सरोवर या आश्रयस्थल को छोड़ते जरा भी देर नहीं लगाते, जिस पर वे रातदिन बसेरा करते थे, जहाँ वे घोंसला बनाकर अपने बच्चों को पालते-पोसते थे, उन्हें चुग्गा पानी लाकर देते थे, जहाँ के फल खाये थे, या मधुर जल का पान किया था । एक कवि इसी बात को विभिन्न रूपकों द्वारा समझाते हुए कहता है
फलहीन महीरुह त्यागि पखेरू, वनानल तें मृग दूरि पराहीं । रसहीन प्रसूनहिं त्यागि करें अलि, शुष्क सरोवर हंस न जाहीं ॥ पुरुषै निरद्रव्य तजै गनिका, न अमात्य रहैं बिगरे नृप पाहीं। शिवसम्पति रीति यही जग की, बिन स्वारथ प्रीति करै कोऊ नाहीं ॥
वास्तव में मनुष्य को जब मूढ़ या मिथ्यास्वार्थ का नशा चढ़ जाता है, तब वह अपने आपे में नहीं रहता, वह अपने पर किये हुए सभी उपकारों को भूल जाता
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