Book Title: Anand Pravachan Part 09
Author(s): Anand Rushi, Shreechand Surana
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 293
________________ __ यत्नवान मुनि को तजते पाप : ३ २७३ घटाने में है । आवश्यकताएँ कम होने पर उसका जीवन तेजस्वी, मस्त और अलमस्त बनता है। पांचों इन्द्रियों की आवश्यकताएँ-अनावश्यकताएँ इसी प्रकार पाँचों इन्द्रियों की आवश्यकताएँ अपना-अपना विषय हैं । श्रोत्रेन्द्रिय का विषय श्रवण है, चक्षुरिन्द्रिय का प्रेक्षण, घ्राणेन्द्रिय का गन्धग्रहण, रसनेन्द्रिय का स्वादग्रहण एवं स्पर्शेन्द्रिय का विषय है-पदार्थों का कोमल-कठोर आदि स्पर्श । यतनाशील आवश्यकता होने पर इन पाँचों इन्द्रियों के विषयों को ग्रहण करता है, परन्तु इस बात की पूरी यतना (सावधानी) रखता है कि ये पांचों इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों को ग्रहण करने से पहले मन ही मन तटस्थ दृष्टि से कठोरतापूर्वक विश्लेषण करे कि क्या इस विषय का ग्रहण करना मेरे लिए आवश्यक है ? यदि आवश्यक है तो कितनी मात्रा में और कब तक है ? यदि साधक को मालूम हो जाए और उसे मालूम करना ही चाहिए कि इन पाँचों में कोई भी इन्द्रिय अनावश्यक और विपरीत मार्ग में ले जाकर अपने अनिष्ट और अहितकर विषय में फंसाना चाहती है तो फौरन सावधान होकर वहाँ से अपनी उस इन्द्रिय को हटा ले, उसमें फिर एक क्षण के लिए भी बिलम्ब न करे । अन्यथा, साधक उस विषयजाल में फंसकर शीघ्र ही पतित हो जाएगा। इन्द्रियविषय के साथ मन भी अपनी कृत्रिम खुराक ढंढ़ता रहता है। लोभी मनोवृत्ति अगणित अनावश्यक विषयों या पदार्थों की ओर मन को विचलित करती रहती है। इसलिए यतनाशील साधक को इतना सावधान रहना है कि मन कहीं इन इन्द्रियविषयों के साथ मिलकर अपनी गलत मनोवृत्ति के कारण उनमें राग, द्वेष, काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि का रंग न भर दे। मन की कृत्रिम आवश्यकताएँ और यतना ___ मन अकसर कृत्रिम रस ढूंढा करता है, इन इन्द्रिय-विषयों में । जैसे कुत्ता सूखी हड्डी चबाते समय अपना जबड़ा छिल जाने पर भी उससे टपकने वाले खून को हड्डी का स्वाद मानता है, मगर स्वाद या रस हड्डी में नहीं होता, वैसे ही अशिक्षित मन संसार के विविध पदार्थों में काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि विकारों का विभिन्न रंग देखकर उसमें सरसता या नीरसता की कल्पना किया करता है। संसार के विभिन्न पदार्थों में सरसता की मृगतृष्णा में मन फँसा रहता है। साधक को इन अनावश्यक कृत्रिम रसों में मन को नहीं फँसने देना चाहिए, फौरन उसे प्रभुभक्ति, ज्ञानपिपासा, आत्मस्वरूपरमणता, दर्शनविशुद्धि, संयम के अनुष्ठानों में लगा देना चाहिए। अन्यथा, वह एक के बाद दूसरे और दूसरे के पश्चात् तीसरे यों अगणित जड़-पदार्थों में रस ढूंढ़ता फिरता रहेगा, और एक दिन साधक की अध्यात्मसाधना को चौपट कर देगा। जैसे भौंरा एक फूल से दूसरे और तीसरे पर रस की खोज में मँडराता रहता है, पुराना नीरस लगा, तो दूसरे में अधिक रस की आशा दिखाई दी, उड़कर जा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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