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आनन्द प्रवचन : भाग ६
टिक जाएगा तो मैं प्रयश्चित्त लेकर और धर्म का पालन कर सकूँगा, परन्तु आर्तध्यान करते हुए शरीर छूटा तो दुर्गति मिलेगी, धर्मपालन से वंचित रहूँगा, अतः ईमानदारीपूर्वक इस आपवादिक नियम का पालन करलूं । अपवाद में भी वह यथाशक्ति अकल्पनीय अनैषणीय वस्तु ग्रहण या सेवन नहीं करता, फिर भी अगर करता है तो यतनापूर्वक ही। यहाँ यतना अपनी शक्तिभर अकल्प्य अपवाद का त्याग करता हुआ, अकल्प्य का यतना से सेवन करने अर्थ में है। यतना का पाँचवाँ अर्थ : प्रयत्न या पुरुषार्थ प्रवचनसार तात्पर्यवृत्ति में यति शब्द का अर्थ किया गया है--
___ "इन्द्रियजयेन शुद्धात्मस्वरूप-प्रयत्नपरो यतिः" इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करके जो शुद्ध आत्मस्वरूप में प्रयत्नशील हो, उसे यति कहते हैं । यति और यतना दोनों यम धातु से बने हैं । इसलिए यतना का पाँचवाँ अर्थ है—प्रयत्नशीलता या पुरुषार्थ ! प्रयत्नशीलता साधक की किस दिशा में हो? यह प्रश्न ही नहीं उठता । क्योंकि साधक सदैव सतत स्व-पर-कल्याण साधना में, आत्मस्वरूप में या लक्ष्य के प्रति अथवा सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय में पुरुषार्थ करता ही है । मगर जो साधक अयतनाशील होकर अकर्मण्य, आलसी या अपराक्रमी हो जाते हैं, वे अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकते । लक्ष्य के प्रति जो पुरुषार्थ नहीं करता, आत्मस्वरूप में प्रयत्न नहीं करता, वह पाप प्रवृत्ति में पड़ेगा और उस पापकर्म के फलस्वरूप नाना दुःखपूर्ण गतियों और योनियों में जन्म-मरण करता रहता है। अतः पापकर्मों से विरत होने के लिए आवश्यक है कि साधक अपने आत्मस्वरूप, रत्नत्रय या ध्येय की दिशा में प्रयत्नशील हो । जब वह आत्मस्वरूप में या ध्येय की दिशा में सतत प्रयत्नशील रहेगा तो वह सारे संसार को आत्मौपम्य दृष्टि से देखेगा, प्राणिमात्र को मित्र समझेगा । ऐसी दशा में हिंसा, झूठ, चोरी आदि का व्यवहार किसके साथ करेगा ? सब अपने ही तो हैं, उसके । इस प्रकार स्वतः ही वह पाप से विरत हो जाएगा। पर कब ? जब इस प्रकार प्रयत्नशील होगा।
___ जैसे नदी सतत महासागर की ओर गति करती रहती है, और लगातार समुद्र में अपने आप को खाली किये जाती है, वैसे ही साधक को अपने ध्येय रूपी सागर की
ओर सतत गति-प्रयत्न करते रहना चाहिए। जब भी साधक का यह प्रयत्न बन्द हो जाएगा, समझ लो, वहाँ आत्मा को कोई न कोई खतरा उपस्थित हो जाएगा। रास्ते में पापरूपी लुटेरे साधक की संयम सम्पत्ति को लूट लेंगे।
कुतुबनुमा की सुई की नोंक सदा आकाश में चमकने वाले किसी दूसरे तारे की ओर नहीं झुकती, सिवाय ध्रुवतारे के । वह केवल ध्रुवतारे के प्रकाश की ओर ताकती है । सूर्य उसे चकाचौंध करता है, पुच्छलतारे दूसरे मार्गों की ओर घूमने का
१ यतना-स्वशक्त्या अकल्प्य-परिहारे
--नि० चू० १ उ० १
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