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यत्नवान मुनि को तजते पाप : ३
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वाला आत्मा है । जब आत्मा अयतनाशील होकर ठीक से इस वाद्य का जतन नहीं करेगा तो यह बेचारा कैसे बज सकता है ?
दूसरी बात यह है कि आत्मा की सुरक्षा के लिए आत्मा के वास्तविक गुणों की रक्षा आवश्यक है । आत्मा के असली गुण हैं—सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यकचारित्र । सम्यक्चारित्र के अन्तर्गत पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति और साधु वर्ग के मौलिक नियम तप आदि आ जाते हैं । अतः रत्नत्रय की, बिशेषतया महाव्रतों (मूल गुणों) की रक्षा होना अनिवार्य है।
कुछ साधक कहते हैं कि जिस प्रकार गृहस्थ श्रावक के व्रतों में अनेक छूटे हैं। वह इच्छानुसार यथाशक्ति एक, दो या सभी व्रतों को ग्रहण कर सकता है तथा व्रतों में भी कुछ छूटे रख सकता है, वैसे महाव्रतों में इच्छानुसार एक दो तीन आदि महाव्रत तथा स्वीकृत महाव्रतों में भी कुछ छूट (रियायतें) क्यों नहीं ले सकता ? इस सम्बन्ध में पुराने सन्त सोना और मोती खरीदने का उदाहरण देते थे। जैसे सोना खरीदने का इच्छुक व्यक्ति अपनी इच्छानुसार एक दो माशा, या तोला-दो तोला चाहे जितना परिमाण में खरीद सकता है, परन्तु मोती खरीदने के इच्छुक व्यक्ति को पूरा मोती ही खरीदना पड़ता है । मोती के टुकड़े नहीं किये जा सकते। यदि मोती के टुकड़े किये जाएँगे तो वह माला में पिरोने योग्य नहीं रहेगा । टूटे हुए मोती की कोई कीमत नहीं होती । अतः श्रावकव्रत सोने के समान और साधु के महाव्रत मोती के समान हैं । श्रावकव्रत में सिर्फ एक दिन के लिए भी आरंभजनित हिंसा या अब्रह्मचर्य सेवन का त्याग हो सकता है, परन्तु साधुजीवन के महाव्रतों में एक दिन के लिए असत्य बोलने, हिंसा करने आदि की छूट नहीं दी जा सकती । वहाँ दीक्षा लेने से लेकर जीवनपर्यन्त महाव्रतपालन की शर्त है, उसमें एक दिन केलिए भी छूट नहीं दी जाती। एक दिन का महाव्रत भंग साधकजीवन का सर्वनाश कर देता है। इसलिए गृहस्थव्रतों की तरह साधु के महाव्रतों में स्वैच्छिक पथ-पालन की छूट या महाव्रत भंग की एक दिन के लिए भी छूट नहीं दी जा सकती।।
निष्कर्ष यह है कि साधु को अपनी आत्मा की रक्षा के लिए आत्मगुणरूप महाव्रतों की रक्षा करनी आवश्यक है । इसी को आत्मा का जतन कहते हैं ।
नियमों का भी जतन : यतना के द्वारा महाव्रतों की रक्षा के लिए नियमों का पालन साधकजीवन में आवश्यक माना जाता है, किन्तु कई दफा साधक के जीवन पर कई प्रकार के आकस्मिक संकट आ पड़ते हैं और ऐसी स्थिति में या किसी दुर्घटना (एक्सीडेंट) की स्थिति में मृत्यु होने की सम्भावना है। साधक अगर अभी परिपक्व नहीं है और हो सकता है, वह आर्तध्यान करे तो उससे मृत्यु हो जाने पर भी और जीवित रहने पर भी वह पापकर्म का बन्ध करेगा । अतः उत्सर्ग की तरह नियमों में कुछ आपवादिक नियम भी साधक के लिए बताये गये हैं। साधक ऐसी संकटापन्न स्थिति में सोचता है कि अगर मेरा शरीर
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