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आनन्द प्रवचन : भाग ६
सिसक उठता पर आत्मा की ग्रन्थियाँ तोड़कर उसे प्रकट करने के संग्राम के लिए यह साधना करनी आवश्यक समझकर यमाचार्य ने कराई। इससे शरीर शुद्ध हो गया, प्राणों पर नियन्त्रण की विद्या सीख ली, मन क्षीण हो गया, मनोमय कोष को उसने जीत लिया । फिर उसने मन को ब्रह्मरन्ध्र में प्रवेश कराकर षट्चक्र भेदन किया ; और मूलाधार स्थित उसकी कुण्डलिनी जागृत हुई । नचिकेता की सभी भौतिक वासनाएँ जल गईं । वह शरीर, मन, प्राण आदि से उपर उठकर आत्मा हो गया । ब्रह्मप्राप्ति के निकट पहुँच गया, तब गुरु से विदा लेकर वह आर्यावर्त्त को लौट पड़ा ।
सारांश यह है कि नचिकेता जिस प्रकार शरीर का ममत्व त्यागकर, भौतिक सुख-सुविधाओं को तिलांजलि देखकर एकमात्र सतत अपने लक्ष्य के प्रति आगे बढ़ता रहा, वैसे ही यतनाशील साधु को आत्मभाव में रमण करने के लिए शरीर, मन, इन्द्रियाँ, प्राण आदि का मोह छोड़कर इनसे सतत संघर्ष करना होगा, भौतिक सुखसुविधाओं से विरक्ति पानी होगी, तभी लक्ष्य के प्रति एकाग्र होकर वह आगे बढ़ सकेगा और पापों से मुक्ति पा सकेगा ।
शास्त्र में बताया गया है—
'अप्पाणं बोसटुकाए, चइत्तदेहे '
- साधक की यतनासाधना इतनी तीव्र हो जाय कि वह अपनी काया तथा काया से सम्बन्धित वस्तुओं के प्रति ममत्व का उत्सर्ग करे, शरीर छोड़ने तक की तैयारी रखे । भगवान महावीर ने यतना की अप्रमत्तता ( सावधानी) के रूप में साधना के लिए साधकों को प्रेरणा दी है
खिप्पं न सक्केइ विवेगमेड तम्हा समुट्ठाय पहाय कामे । समिच्च लोयं समया महेसी आया रक्खी चर अप्पमते ॥
आत्म-विवेक (शरीर और आत्मा का भेदविज्ञान ) झटपट प्राप्त नहीं हो जाता । इसके लिए कठोर साधना आवश्यक है । महर्षि का कर्त्तव्य है कि वह बहुत पहले से ही संयम पथ पर दृढ़ता से जमा रहकर कामभोगों का परित्याग करके संसार की वास्तविक स्थिति को समझे और समतापूर्वक कुसंस्कारों – पापकर्मों से अपनी आत्मा की रक्षा करते हुए सदा अप्रमत्त रूप ( यतना) से विचरण करता रहे ।
यतना कहाँ-कहाँ और किस प्रकार रखनी है ?
अब सवाल यह उठता है कि सावधानी या अप्रमत्ततारूप यतना कहाँ-कहाँ और कैसे रखनी है ? हमारी आत्मा अकेली नहीं है, उसके साथ छह सम्पर्कसूत्र हैं,
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