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सौम्य और विनीत की बुद्धि स्थिर : २ ७६ का अर्थ शास्त्र में लज्जाशील और इन्द्रियदमनकर्ता बनाया है । सच्ची नम्रता या सच्चा विनय जब स्थिरबुद्धि के योग्य अन्य गुणों के सहित हो, तभी बुद्धि स्थिर होती है ।
__इसी प्रकार व्यक्ति में सेवा, दया, भक्ति, जितेन्द्रियता, निरभिमानता आदि अन्य गुण तो हों, किन्तु बात-बात में क्रोध, रोष और आवेश आ जाता हो, चेहरे पर सौम्यता न हो, आँखों में क्रूरता हो तो बुद्धि उससे कोसों दूर भाग जाएगी।
इसीलिए गौतम ऋषि ने बुद्धि की स्थिरता के लिए दो मुख्य गुण आवश्यक बताए हैं—सौम्यता और विनीतता । इन दोनों गुणों में स्थितप्रज्ञ के अन्य गुणों का समावेश हो जाता है।
क्रोधादि आवेश और अभिमान के समय बुद्धि स्थिर नहीं यह तो निश्चित है कि जब मनुष्य में क्रोध, रोष, द्वेष, ईर्ष्या, कुढ़न, स्वार्थ, कामनादि आवेश आते हैं या जब उसके मस्तिष्क में जाति आदि किसी प्रकार का मद या सेवा आदि किसी बात का अहंकार सवार हो जाता है तो उसकी बुद्धि पर पर्दा पड़ जाता है, उसकी बुद्धि कुण्ठित हो जाती है, वह स्थिर नहीं रहती, वह किसी भी बात पर गम्भीरता से, ठंडे दिल-दिमाग से सोच नहीं सकता, उसकी निर्णयशक्ति बहरी हो जाती है, वासना-कामना की प्रचण्ड आग में, स्वार्थ की लपटों में उसकी सबुद्धि-हितबुद्धि झुलस जाती है, क्रोधादि प्रचण्ड विकारों के आवेग में सही समाधान करने की बुद्धि नष्ट हो जाती है । क्या क्रोधान्ध, कामान्ध या अभिमानान्ध मनुष्य निष्पक्ष निर्णय कर सकता है ? उसकी बुद्धि उस समय स्थिर न होने से वह जोश में होश भुलाकर ऊटपटाँग काम कर बैठेगा, जिसके लिए उसे बाद में पश्चात्ताप करना होगा।
एक धनिक की पत्नी का बात-बात में पारा गर्म हो जाता । वह जरा-जरा-सी बात के लिए गुस्सा होकर झगड़ा कर बैठती और सेठ से कह बैठती- "बस, मैं अब इस घर में नहीं रह सकती।" गुस्से में मनुष्य को कुछ भी भान नहीं रहता, बुद्धि उसकी स्थिर नहीं रहती। सेठ ने सोचा- यह रोज-रोज झगड़ा करके चली जाने को कहती है, एक दिन इसे जाने दें, देखे कहाँ जाती है। एक दिन गुस्से में आकर वह बड़बड़ाने लगी, और गुस्से ही गुस्से में आत्महत्या करने के लिए चल पड़ी। घर से निकलते समय उसने सुन्दर कपड़े और सभी गहने पहन लिए थे। वह एक बड़े गहरे कुए पर आकर बैठ गई। इतने में एक ढोली उधर से आया उसने सेठानी को देखकर पूछा- “आज कहाँ जा रही हो, सेठानी जी !" सेठानी ने क्रोधावेश में आकर कहा- "इस संसार में अब मेरे लिए कहीं स्थान नहीं है। मैं तो मरने के लिए जा रही हूँ। इस कुए में मुझे गिरना है।"
ढोली ने पहले उसे बहुत समझाया, पर सेठानी की बुद्धि तो क्रोधावेश में पलायित हो गई थी। अत: बोली-“मैं अपने विचार पर अटल हूँ।" "सेठानी ! आपको मरना तो है ही, ये गहने तो मुझे दे दीजिए, ताकि मेरे काम आएँगे। कुए
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