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आनन्द प्रवचन : भाग ६
___ च्वांगत्सु ने एक बढ़ई के बारे में कहा था कि वह कोई चीज बनाता तो इतनी सुन्दर और आकर्षक होती कि लोग कहते थे—यह किसी मनुष्य की कृति नहीं, देवता की है। एक राजा ने उस बढ़ई से पूछा- "तुम्हारी कलापूर्ण क्रिया में क्या जादू है ?'' वह बोला--"जादू कुछ नहीं, राजन् ! थोड़ी सी सावधानी की बात है । मैं किसी चीज को बनाने की क्रिया प्रारम्भ करने से पहले अपने आपको मिटा देता हूँ। सबसे पहले मैं अपनी प्राणशक्ति के अपव्यय को रोकता हूँ, साथ ही चित्त को पूर्णतः शान्त बनाता हूँ । तीन दिन इसी स्थिति में रहने पर मैं उस वस्तुनिर्माण क्रिया से होने वाले मुनाफे, लाभ आदि की बात से विस्मृत हो जाता हूँ । पाँच दिनों के बाद तो मैं उससे मिलने वाले यश, श्रेय, प्रतिष्ठा आदि को भी भूल जाता हूँ। सात दिन के पश्चात् मुझे अपनी काया भी विस्मृत हो जाती है। इस भाँति मेरा सारा कौशल एकाग्र हो जाता है । समस्त बाह्य और आभ्यन्तर विघ्न एवं विकल्प लुप्त हो जाते हैं। फिर तो 'मैं' भी व्युत्सर्जित हो जाता हूँ। इसलिए मेरी क्रिया या कृति दिव्य प्रतीत होती है।"
उत्तराध्ययन सूत्र के समाचारी अध्ययन में भी साधु की चर्या के प्रसंग में बताया गया है कि साधु अपने गुरुदेव से पूछता है कि अब मैं तप करूँ, वैयावृत्य करूँ, स्वाध्याय करूं या ध्यान ? इस प्रकार अपने अहं को विसर्जित करके वह गुरु-आज्ञा से किसी क्रिया में लगता है, उसमें अपने आपको विस्मृत, विसर्जित एवं समर्पित कर भगवदाज्ञा समझकर भक्तिभाव से तन्मयतापूर्वक करता है । यही यतनापूर्ण क्रिया है।
यतना की इन विशेषताओं को देखते हुए ही महर्षि गौतम के हृदय में यह जीवनसूत्र स्फुरित हुआ
'चयंति पावाई मुणि जयंतं ।' मैं यहाँ यतना के एक अर्थ पर ही विश्लेषण कर सका हूँ। यतना के अन्य अर्थों पर अगले प्रवचन में प्रकाश डालने का प्रयत्न करूंगा।
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