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यत्नवान मुनि को तजते पाप : २
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ब्रह्मचर्य आदि की दृष्टि से हानिकारक है । कई डाक्टर रोगियों को सलाह देते हैं कि थोड़ा-थोड़ा कई बार खाओ। इसके पीछे उनका आशय हल्के और सुपाच्य आहार से ही है । सुना है अलसर एवं भस्मक रोगों में कई बार खाया जाता है। लूंसकर खाने से रक्त का संचार उदर की ओर होता है, मस्तिष्क को वह कम मात्रा में मिल पाता है । इस कारण दिमाग को शक्ति न मिलने से कुण्ठा उत्पन्न हो जाती है, और ऐसा व्यक्ति बौद्धिक श्रम नहीं कर पाता।
इसी कारण भूख की पीड़ा सहन न होने पर आहार करने का विधान किया गया है।
दूसरा कारण है-वैयावृत्य । किसी रुग्ण, वृद्ध, ग्लान या अशक्त साधु की सेवा में स्वस्थ एवं सशक्त साधु की जरूरत है । परन्तु वह तपस्या करने के नाम पर हठपूर्वक भोजन छोड़ देता है, जिससे उसका शरीर दुर्बल और अक्षम हो जाता है, वह रुग्ण आदि साधु की सेवा करने योग्य नहीं रहता । अत्यन्त दुर्बल और कृश शरीर से भला वह कैसे सेवा कर सकता है ? यह यतना नहीं है कि सेवा का कर्तव्य सिर पर आ पड़ा हो, और साधु अविवेकयुक्त होकर उपवास लेकर बैठ जाए। इसलिए वैयावृत्य (सेवा) करने हेतु साधक को आहार करना आवश्यक बताया है। - तीसरा कारण है-ईसमितिपूर्वक चर्या करने के लिए । साधु हठपूर्वक यदि लम्बे उपवास कर बैठता है, उधर शरीर बिलकुल निढाल और अशक्त होने से लड़खड़ाने लगता है, तब वह यतनापूर्वक अपनी गमनागमन क्रिया नहीं कर सकता। करता है तो अयतना होती है, प्राणियों का उपमर्दन भी होना सम्भव है। इसलिए बताया गया कि ईर्यासमितिपूर्वक चर्या करने के लिए साधु आहार करे।
चौथा कारण है-संयम के लिए । आहार न करने से अगर संयमपालन में बाधा पहुँचती है, पराधीन होकर असंयम में पड़ना पड़ता है, इन्द्रियों और मन पर संयम रखने में रुकावट आती है तो संयम के पालन या निर्वाह के हेतु भगवान ने आहार ग्रहण करने की आज्ञा दी है।
पाँचवां कारण है-प्राणों को टिकाने हेतु। मनुष्य प्राण रहते ही धर्मपालन कर सकता है। प्राणों के खत्म होने पर शरीर भी खत्म हो जाता है । फिर साधक धर्माचरण किससे करेगा ? अधूरी साधना रहने पर साधक का प्राणत्याग अगले जन्म में सुन्दर प्रतिफल नहीं देता। इसलिए प्राणों को टिकाने के लिए आहार करना आवश्यक बताया है।
छठा कारण है-धर्म चिन्ता-अर्थात्-धर्मपालन के लिए। अहिंसा, सत्य आदि धर्मों का पालन हो सकता है तो सशक्त एवं स्वस्थ शरीर से ही। कोई साधक इतना विवेक न करके आवेशवश आहार-त्याग देता है तो उसका नतीजा यह होता है कि न तो अशक्त शरीर से वह धर्मपालन कर सकता है, और न ही भूखे रहकर वह धर्मक्रिया ठीक से कर सकता है। वह धर्म के विषय में चिन्तन-मनन या इस
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