________________
यत्नवान मुनि को तजते पाप : २
२५५
बन्धुओ ! ज्ञानी ज्ञानी से मिलता है तो बोलने की अपेक्षा नहीं रहती, बोलने की अपेक्षा रहती है— अज्ञानी - अल्पज्ञ के सामने । किन्तु भगवान महावीर ने वचनक्रिया की प्रवृत्ति के सम्बन्ध में एक और यतना (बिबेक ) बताई है कि अगर कोई हठाग्रही - कदाग्रही मिल जाए तो पहले उसे बार-बार समझाओ, उसे सोचने का अवकाश दो, फिर भी वह अपनी जिद्द पर अड़ा रहे तो वहाँ वाग्गुप्ति कर लो, अर्थात् मौन कर लो, व्यर्थ का वादविवाद करके द्वेष, रोष और कलह मत बढ़ाओ ।
एक बार बादशाह ने बीरबल से पूछा था - " - "मूर्ख से वास्ता पड़े तो क्या करना चाहिए ?" बीरबल ते तपाक से कहा - " हजूर ! मौन हो जाना चाहिए ।" विवाद को वहीं समाप्त करने सबसे सुन्दर उपाय है - वचन की क्रिया से
निवृत्ति ।
मौन या वाणी की क्रिया से निवृत्ति का सर्वोत्तम लाभ यह है कि उससे सद्ज्ञान बढ़ेगा । भाषा का प्रयोग जितना अधिक होता है, उतनी ही अन्तर्ज्ञान में Sonia आती है । आपने अनुभव किया होगा कि बोलने से पहले मन चंचल होता है, उसके बाद भी चंचलता होती है, और बोलते समय भी चंचलता । यह सारी चंचलता मनुष्य के अन्तर्ज्ञान में बाधा उत्पन्न करती है । यही कारण है कि जिन्होंने अन्तर्ज्ञान की साधना की, वे सब साधक अधिक समय तक मौन रहे, कम से कम बोले । भगवान महावीर से जब वचनगुप्ति के परिणाम के बारे में पूछा गया तो उन्होंने फरमाया कि वचनगुप्ति से निर्विचारिता या निर्विकारता प्राप्त होती है । निर्विचारता का अर्थ है— विचार की स्थिति का समाप्त होना और निर्विकारता का अर्थ हैभाषा से होने वाली विकृति - परिणति का समाप्त हो जाना ।
वाणी की क्रिया से निवृत्ति (मौन) का दूसरा लाभ है— विवादमुक्ति । बोलने के कारण ही परिवारों में, समाज या राष्ट्र में विवाद उत्पन्न होता है । दो व्यक्ति झगड़ते हैं, तब वे दोनों ही बोलते जाते हैं, इससे लड़ाई की आग बुझती नहीं, बल्कि अधिक भड़कती है। दोनों में से एक नहीं बोलता - मौन हो जाता है, तो वह कलहाग्नि स्वयं शान्त हो जाती हैं ।
"
वाणी की क्रिया से निवृत्ति से तीसरा लाभ है - अहंत्वमुक्ति बोलने से, सुन्दर भाषण करने से मनुष्य में गर्व बढ़ता है, अहंकार जागता है कि मैं सुन्दर बोलता हूँ, मेरी भाषण शक्ति अच्छी है । विविध भाषाओं का ज्ञान भी अयतना ( अविवेक) हो तो अहंकार बढ़ाता है - यह तो आपका आए दिन का अनुभव होगा । स्वामी रामतीर्थ जब अमेरिका से अपने मिशन में सफल होकर भारत लौटे तो सर्वप्रथम वे काशी पहुँचे । वहाँ काशी के दिग्गज पण्डित भी उनके अनुभव और संस्मरण सुनने आए । वहीं सभा में से एक असहिष्णु पण्डित उठा और उसने रामतीर्थ से पूछा - " आप संस्कृत जानते हैं ?" उन्होंने कहा - "नहीं ।" पण्डित बोला - "तो फिर आप ज्ञान की बात क्या करते हैं ? जो संस्कृत नहीं जानता, वह ब्रह्मज्ञान की बात क्या करेगा ?"
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org