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आनन्द प्रवचन : भाग ६
की हड्डी को सीधा रखकर न बैठना हानिकारक है, वह जैनशास्त्र की दृष्टि से भी अयतनाकारक है। बाईं करवट सोना स्वास्थ्य के लिए ठीक बताया गया है, इसी प्रकार लेटे-लेटे पढ़ना या अत्यधिक मोटी कोमल गुदगदी शत्या पर सोना भी वर्जित किया है। आलस्यवश बिना प्रयोजन, नींद न आती हो तो भी पड़े रहना, तथा अनेक चिन्ताएँ लेकर या कामोत्तेजक अश्लील साहित्य या दृश्य को पढ़-सुन या देखकर सोना भी यतना में बाधक है। जागकर भी रात को जोर-जोर से चिल्लाना, बोलना अथवा दूसरे साधुओं या लोगों की नींद हराम करना भी यतना के खिलाफ है।।
इसी प्रकार विहारचर्या के अन्तर्गत श्वासक्रिया भी आती है। श्वास क्रिया में भी विवेक (यतना) रखना परमावश्यक है। श्वास-क्रिया नाक के बजाय मुंह से लेना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। इसीप्रकार गंदी, विकृत, घिनौनी, दुर्गन्धयुक्त या नमी वाली जगह में रहकर श्वास लेना भी रोगवर्द्धक है, रात को वृक्ष के नीचे सोने से वृक्ष की कार्बनगैस श्वास के साथ प्रविष्ट होती है और वह मनुष्य की आक्सिजन (प्राणवायु) को खींच लेती है।
इसी प्रकार साधु को बोलने की क्रिया में यतना (विवेक) रखना अत्यावश्यक है । क्या बोलना, कैसे बोलना, कब बोलना, कितना बोलना ? आदि विवेक वाणी की क्रिया के विषय में रखना चाहिए। कई लोग कहते हैं कि बोलने से दोष आता है, विवाद बढ़ जाता है, संघर्ष हो जाता है, इसलिए साधु को सर्वथा मौन हो जाना चाहिए, बोलने की क्रिया से निवृत्त हो जाना चाहिए। परन्तु एकान्तरूप से यह बात ठीक नहीं । जहाँ साधु को यह लगे कि बोलने से व्यर्थ का विवाद बढ़ने की, कलह होने की, द्वष और वैर बढ़ने की आशंका है, वहाँ उसे अवश्य ही बोलने की क्रिया से निवृत्ति लेना है, परन्तु जहाँ बोलना आवश्यक है, किसी को अपनी बात समझाना या सन्मार्ग बताना आवश्यक है, वहाँ उसे बोलने की प्रवृत्ति से दोष आने की शंकामात्र से निवृत्त नहीं होना चाहिए। वहाँ संयमपूर्वक, यतनापूर्वक वचनशुद्धि का विवेक रखते हुए बोलना शास्त्र (उत्तराध्ययन अ० २४) में निर्दिष्ट है
कोहे माणे य मायाए, लोभे य उवउत्तया । हास भए मोहरिए विकहासु तहेव य ॥६॥ एयाइं अट्ठठाणाइं परिवज्जित्त, संजए।
असावज्ज मियंकाले भासं भासिज्ज पन्नवं ॥१०॥ "क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, भय, मौखर्य (व्यर्थ बकवास) एवं विकथाएँ, इन आठ स्थानों से युक्त वाचिक क्रिया को छोड़कर प्रज्ञावान (विवेकी) एवं संयमी साधु अवसर आने पर, असावद्य (निरवद्य) एवं परिमित वचन बोले।"
__ दशवकालिक सूत्र का सातवां अध्ययन तो सारा का सारा संयमी साधु की वाक्यशुद्धि के निर्देशों से भरा है । अतः वाणी की क्रिया से केवल निवृत्ति करना ही
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