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२४४ आनन्द प्रवचन : भाग ६
समय मेरा क्या धर्म है ? किसको मुझे किस धर्म का उपदेश देना चाहिए, आदि धर्मचिन्तन नहीं हो सकता । इसलिए शास्त्रकार ने धर्मचिन्तन हेतु साधु को आहार करने की छूट दी है ।
जिस प्रकार आहारक्रिया में प्रवृत्ति करने के लिए यत्नाचार (विवेक) बताया है, वैसे आहारक्रिया से निवृत्ति के लिए भी ६ कारण बतलाये हैं । वे इस प्रकार है-
आयंके उवसग्गे तितिक्खया बंभचेरगुत्तीसु । पाणिदया तवहेउं सरीरवृच्छेयणट्ठाए ॥
(१) आतंक उपस्थित होने पर, (२) उपसर्ग आ पड़ने पर, (३) तितिक्षारक्षा के लिए, (५) प्राणियों की दया के का व्युत्सर्ग ( आमरण अनशन - संथारा ) किसी एक कारण के उपस्थित होने पर
सहिष्णुता के लिए, (४) ब्रह्मचर्य की लिए, (६) तपस्या के कारण, तथा शरीर करने की स्थिति में, इन ६ कारणों में से साधु आहार त्याग करे ।
किसी गाँव, नगर या देश में आतंक छाया हुआ हो, दंगाफसाद हो, कोई हत्याकाण्ड हो रहा हो, उस समय मुनि को आहार न मिलने पर मन में आर्तध्यान न करके स्वयमेव प्रसन्नता से आहार- पानी का त्याग आतंक के दूर न होने तक या कर्फ्यू आदि प्रतिबन्ध न हटने तक कर देना चाहिए । इसी प्रकार भूकम्प, बाढ़, महामारी आदि किसी प्राकृतिक प्रकोप या देवी या मानुषी किसी उपसर्ग के आ पड़ने पर भी मन में आर्त्तध्यान न करके समभावपूर्वक आहार- पानी का त्याग करें ।
इसी प्रकार किसी समय प्रासुक, एषणीय या कल्पनीय आहार -पानी का योग न मिलने पर अथवा बीमारी, अशक्ति या गुरु आदि प्रिय जनों का वियोग होने के प्रसंग में समभाव से सहिष्णुता की दृष्टि से आहार- पानी का त्याग करे । ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए भी आहार- पानी का त्याग करना पड़े, तो सहर्ष त्याग करे, इसी प्रकार धर्मरुचि अनगार की तरह जीवदया के लिए भी आहार- पानी का त्याग करना पड़े तो प्रसन्नतापूर्वक करे । कोई विशिष्ट तप किया हो, तब तो आहार या आहार -पानी का त्याग होता ही । किन्तु तपस्या के दौरान वह मन ही मन आहारसंज्ञावश अमुक आहार आदि की कल्पनाएँ या योजनाएँ न बनाए, पारणे में अमुक आहार के सपने न सँजोए । इसी प्रकार आमरण अनशन (संलेखनापूर्वकं संथारा) किया हो तब भी आहारादि की मन में भी कल्पना न करे । कदाचित् रोग मिट जाने या शरीर स्वस्थ हो जाने पर भूख लगी तो भी प्रतिज्ञाबद्ध होने के बाद आहारादि त्याग निर्जरा का कारण समझकर उसके लिए मन को विचलित न करे । आहारक्रिया से निवृत्ति के ये ६ कारण यतना (विवेक) के ही प्रकार हैं ।
इसके अनिरिक्त ग्रहणैषणा, गवेषणा और परिभोगषणा का विवेक आहारादि के विषय में करना भी यतना है । उद्गम, उत्पादन और एषणा के आहारादि
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