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आनन्द प्रवचन : भाग ६
साधु-साध्वी इन ६ कारणों में से कोई एक कारण उपस्थित हो, तभी आहारपानी ग्रहण करें—
(१) क्षुधावेदना - भूख से पीड़ित होने पर, (२) रुग्ण - ग्लान या बड़ों की सेवा के लिए, ( ३ ) ईर्यासमिति के पालन के लिए, (४) संयम को टिकाने या निभाने के लिए, (५) अपने प्राणों को टिकाने के लिए, एवं (६) धर्मचिन्तन और धर्मपालन के लिए ।
आहार- पानी में प्रवृत्ति के लिए यतना (विवेक) की कितनी सुन्दर बात भगवान् महावीर ने कही है। प्रथम कारण पर ही विचार कर लें - साधक सच्ची भूख लगने पर ही भोजन करे, यह प्रथम कारण का तात्पर्य है । जब साधक अत्यधिक मात्रा में भोजन करता है, या अनियमित रूप से भोजन करता है, तब भूख मर जाती है । वह सच्ची भूख नहीं होती । अतः इस विषय में यतना करना आवश्यक है । भगवद्गीता में योगी के आहार के सम्बन्ध में बताया गया है—
'नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः ।'
,
- " अति भोजन से भी योग-साधना नहीं होती, और न एकान्ततः कम खाने या बिलकुल न खाने से । "
कड़ाके की भूख लगी हो, और आहार छोड़ने का कोई भी कारण न हो, आहार -पानी भी प्रासुक एवं एषणीय उपलब्ध हो, उस मौके पर हठपूर्वक आहार न करना, या किसी के साथ तकरार, कलह, रोष या संघर्ष होगया हो, और आवेश में आकर आहार न करना — यतना नहीं हैं, बल्कि अयतना है ।
अधिक मात्रा में आहार करने से भोजन का पाचन ठीक रूप से नहीं हो पाता । उसके कारण उदर शूल, गैस, अतिसार, अजीर्ण या सिरदर्द आदि कई बीमारियाँ हो जाती हैं। पहले का खाया हुआ पचा नहीं, उसी बीच और खाना अतिभोजन है । पचने से पूर्व खाने से पहले का भोजन कच्चा रह जाता है । फिर अतिमात्रा में आहार करने पर आलस्यवृद्धि, सुस्ती, शरीर में उष्णतावृद्धि, स्वप्नदोष, वीर्यपात आदि दोष होंगे, साधक का मन स्वाध्याय, ध्यान, चिन्तन-मनन आदि में नहीं लगेगा । इसलिए अतिमात्रा में आहार करना प्रत्येक दृष्टि से दोषयुक्त है ।
इसी प्रकार असंतुलित एवं अनियमित आहार करना भी शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है । अत्यन्त कम खाना या बिना ही कारण के आवेशवश या सनक में आकर भोजन बिल्कुल करना भी संयमसाधना की दृष्टि से गलत है ।
कई लोग एक ही बार में दोनों टाइम का आहार ठूंस लेते हैं, वह भी स्वास्थ्य,
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