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यत्नवान मुनि को तजते पाप : २ २४७ साधुजीवन का लक्ष्य नहीं, अपितु निवृत्ति और प्रवृत्ति दोनों का विवेक करके चलना ही उसके लिए अभीष्ट है ।
वाणी पुण्य का भी कारण है और पाप का भी । इसलिए वाणी का प्रयोग और उपराम बहुत ही सावधानी से करना चाहिए । गोस्वामी तुलसीदासजी ने एक दोहे में बहुत ही सुन्दर कह दिया है, इस सम्बन्ध में -
यश-अपयश, जय-हान । 'तुलसी' कहहिं सुजान ॥
ऐसे ही बिना किसी प्रयोजन के आवेश में आकर मौन कर लेने और अंदर ही अंदर किसी के प्रति द्वेष, रोषवश घुटते रहने, कुढ़ते रहने से वह वाणी की निवृत्ति पुण्यजनक नहीं, पापजनक ही बनेगी। मुझे एक रोचक दृष्टान्त याद आ रहा है, इस प्रसंग पर
प्रेम-वैर अरु पुण्य-अघ, बात बीज इन सबन को,
किन्हीं जाट जाटनी एक बार आपस में झगड़ा हो गया । इससे परस्पर बोलचाल बंद हो गई । दोनों के रहने का झौंपड़ा तो एक ही था । फलतः रात को दोनों एक दूसरे से विपरीत दिशा में मुँह करके सो गये । मन ही मन दोनों घुटते रहे, एक दूसरे के विरुद्ध चिन्तन करते रहे, पर बातचीत बिलकुल नहीं की । खैर, रात तो किसी तरह बीत गई। सूरज उगते ही किसान लोग खेतों पर जाने लगे । पर जाट कैसे जाता ? वह तो भूखा था । इधर जाटनी ने सोचा - ये कैसे आदमी हैं, सब लोग खेतों में जा रहे हैं, ये निश्चिन्त बैठे हैं यहाँ । खेत में नुकसान हो रहा है काम के बिना । आखिर जाटनी ने जाट के साथ न बोलने की अपनी टेक रखते हुए एक तरकीब निकाली । उसने जाट के सामने न देखकर दूसरी ओर मुँह करके कहा
"लोग चाल्या लावणी, लोग क्यूँ नी जाय जी ?"
अर्थात् — 'गाँव के किसान फसल काटने जा रहे हैं, ये क्यों नहीं जाते ?' जाट भी इसी तरकीब को अजमाते हुए मुँह फेरकर बोला
"लोग चाल्या खाय-पीय, लोग कांई खाय जो ?"
इस पर जाटनी ने भी उसी तरह मुँह फेरकर उत्तर की पूर्ति की - "छींके पड़ी राबड़ी, उतार क्यूँ नी लेय जी ?”
तब जाट ने मामला समेटते हुए कहा
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“अब तो आप बोल्या चाव्या घाल क्यूं नी देय जी ।"
बस झगड़ा समाप्त । जाटनी ने छींके पर से रोटी-राबड़ी उतारकर भोजन परोस दिया। जाट खा-पीकर खेत पर काम करने के लिए चल पड़ा ।
हाँ, तो जाट जाटनी की तरह रोष या द्वेषवश वाणी की क्रिया से निवृत्त होना कोई यतना नहीं है, बल्कि अयतना है ।
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