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क्रुद्ध कुशील पाता है अकीर्ति
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पास ही हूँ।" गोपालक की पत्नी ने बाघ के सिर पर तीन चोट मारी, जिससे उसने वहीं दम तोड़ दिया । गोपालक गर्वस्फीत होकर छत से नीचे उतरा और मानो खुद ने ही मर्दानगी की हो, इस प्रकार अभिमानपूर्वक मरे हुए बाघ की ओर ताकने लगा। फिर उसने बाघ की पूंछ और कान काट लिए। पूंछ अपने गले में डाले और कान हाथ में लिए हुए वह पास के गाँव में गया। वहाँ घूमते हुए उसे जो भी ग्रामीण मिल जाता, उसके सामने अपनी शेखी बघारते हुए कहता- "देखो जी ! इतने बड़े बाघ को मैंने अपने घर के आंगन में मार डाला।" जो भी सुनता, वह उसकी प्रशंसा करते हुए धन्य-धन्य कहता। अपना बखान सुनकर गोपालक मन में फूला नहीं समाया । इस प्रकार अपनी पत्नी को मिलने वाली कीर्ति उसने स्वयं हड़प ली और अपना नाम 'बाघमार' रख लिया।
इस प्रकार कई लोग दूसरों के द्वारा किये गये अच्छे कार्य का श्रेय स्वयं लूट लेते हैं। परन्तु इस प्रकार अजित की हुई कीर्ति चिरस्थायी नहीं होती है। ऐसे ही कीर्तिलिप्सु लोगों के लिए गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है
तुलसी जे कीरति चहहिं, पर की कीरति खोय।
तिन के मुँह मसि लागि है, मिटहिं न मरिहैं न धोय ।।
आगरा के एक बहुत प्रसिद्ध नेता स्वयं एम० ए० पास न होते हुए भी अपने नाम के आगे एम० ए० लगाते थे। इस पर कुछ समझदार लोगों व सरकार ने उनसे जवाब-तलब किया तो उन्होंने समाधान किया कि एम० ए० का अर्थ आपने नहीं समझा । एम० ए० का अर्थ है—मेम्बर ऑफ आर्यसमाज । मेम्बर का 'एम' और आर्यसमाज का 'ए' दोनों मिलकर एम० ए० हो गया। कहिए, ऐसे आदमी की कीति अर्जित करने की चालाकी को आप कैसे पकड़ेंगे ?
कई लोग कीर्ति की लालसापूर्ति के लिए अथवा नष्ट हुई प्रतिष्ठा को पुनः प्राप्त करने के लिए, अथवा अपने अपकृत्यों, कुकर्मों से होने वाली बदनामी को रोकने के लिए थोड़ा-सा दान दे देते हैं, और अखबारों में बड़े-बड़े हैडिंगों में नाम छपवा देते हैं । अपने फोटो किसी काम के करने का कृत्रिम प्रदर्शन करने हेतु खिंचवा लेते हैं। कई लोग सस्ती कीर्ति पाने के लिए किसी मन्दिर या धर्मशाला में कुछ रुपये देकर अपने नाम का पत्थर लगवाते हैं, कुछ लोग अपनी कामनापूर्ति हो जाने पर किसी मन्दिर या संस्था में इसी आशय से दान देते हैं। कुछ लोग दान करते ही तब हैं जब वे देखते हैं कि उनकी प्रशंसा हो, प्रतिष्ठा बढ़े, गुणगान हो । इस प्रकार के दान से कीर्ति खरीदी जाती है। परन्तु याद रखिये केवल दान से चिरस्थायी और वास्तविक कीर्ति नहीं मिलेगी; कीर्ति मिलेगी निःस्वार्थ भाव से दान, पुण्य, सत्कार्य, धर्माचरण, सदाचार-पालन आदि करने से । धन से कितनी सस्ती कीर्ति मिल सकती है, उसका यह नमूना है । परन्तु इस युग में पता नहीं लोगों को • क्या हो गया है, समाज में गुण नहीं, एक मात्र धन को देखकर, उस व्यक्ति से धन
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