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आनन्द प्रवचन : भाग ६
शान्ति की पृच्छा की । साधु ने पूछा - "देवानुप्रिय ! कहाँ रहे अब तक ? मैं तो आज बड़े संघर्ष में फंस गया ।"
देव बोला- -" था तो मैं आपकी सेवा में ही । लेकिन धोबी और चाण्डाल की लड़ाई का नाटक देख रहा था । "
मुनि ने कहा - " चाण्डाल वहाँ कोई नहीं था, मैं और धोबी थे ।"
देव ने कहा - "मुनिवर ! आपकी ओर तो कोई आँख भी नहीं उठा सकता, लेकिन आप अपने आपे में नहीं थे, उस समय आप में क्रोधरूपी चाण्डाल घुसा हुआ था, इसलिए मैं चाण्डाल की सेवा में नहीं आया । तटस्थ होकर दूर से तमाशा देखता रहा । "
तपस्वी बोले- “सचमुच तुमने ठीक कहा । मुझे उस समय क्रोध आ गया था । मैं अपने आपे में नहीं था । क्रोधरूपी चाण्डाल ने घुसकर मेरी सारी कीर्ति चौपट कर दी। अब मैं अपने आपे में आया हूँ ।"
बन्धुओ ! क्रोध के साथ अभिमान, द्वेष, रोष आदि जब साधक में प्रविष्ट हो हैं तो कीर्ति को नष्ट करते देर नहीं लगाते ।
इसी प्रकार कीर्ति का दूसरा शत्रु है – कुशील । कुशील का अर्थ है-सदाचरणहीनता, चरित्रभ्रष्टता ।
थेरगाथा (६२४) में स्पष्ट कहा है
'अवण्णं च अति च दुस्सीलो लभते नरः '
- दुःशील पुरुष अपयश और अपकीर्ति पाता है ।
यही बात दशवैकालिक सूत्र की चूर्णि (१।१३ ) में कही गई है—
sasधम्मो अयसो अकित्ती"
संभिन्न वित्तस्स य ठुओ गई ।
- वृत्त - चरित्र से भ्रष्ट पुरुष का इस लोक में अपयश और अपकीर्ति होती है तथा परलोक में अधोगति होती है ।
कुशीलसेवन से व्यक्ति की कीर्ति किस प्रकार नष्ट हो जाती है और उसकी कैसी विडम्बना होती है, इसके लिए एक ऐतिहासिक उदाहरण लीजिए -
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धारा नगरी में मुँजराजा राज्य करते थे । उनके पास राज्य वैभव आदि सभी प्रकार का ठाठ था । एक बार किसी शत्रु राजा के साथ उन्हें युद्ध करना पड़ा। इस युद्ध में उनकी हार हुई | शत्रु राजा ने मुंजराजा को बाँधकर अपने राज्य में नजरबंद कैद कर दिया । उनको भोजन कराने के लिए वह राजा प्रतिदिन एक दासी के साथ थाली में परोसकर भेजता था । दासी अत्यन्त रूपवती थी। मुंजराजा उसके रूप पर मोहित हो गए और उसके साथ दुराचार सेवन करने लगे ।
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