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आनन्द प्रवचन : भाग ६
असतलित स्थिति में मनुष्य को हिताहित का, भले-बुरे का ज्ञान नहीं रहता, न कर्तव्यबुद्धि का भान रहता है।
इसलिए संभिन्नचित्त का एक अर्थ असंतुलित चित्त है, जिसके रहते मनुष्य को अपने जीवन में सफलता, विजयश्री, शान्ति और प्रसन्नता नहीं मिलती।
मैंने आपके समक्ष सभिन्नचित्त के विभिन्न अर्थों पर विस्तार से प्रकाश डाला है । आप इस पर मनन-चिन्तन कीजिए और समस्त प्रकार की 'श्री' से वंचित रखने वाले संभिन्नचित्त से बचने का प्रयन्न कीजिए। श्रीहीन जीवन कथमपि उपादेय नहीं, है, जिसकी ओर महर्षि गौतम ने संकेत किया है
'संभिन्नचित्त भयए अलच्छी'
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