________________
सत्यनिष्ठ पाता है श्री को : २ १७६ दूसरे दिन राजदरबार खचाखच भरा था। कुतूहलवश सैंकड़ों दर्शकगण भी महणसिंह की सत्यप्रियता का नाटक देखने आये हुए थे। सबको ऐसा लग रहा था कि आज महणसिंह सेठ को सजा मिलेगी। कुछ लोग आपस में कानाफूसी करने लगे-'आखिर तो व्यापारी बच्चा है । दो-चार लाख कम ही बताएगा।'
राजा ने पूछा-'क्यों महणसिंह ! हिसाब कर लाए ?' महणसिंह- 'जी हजूर ।' राजा-'कुल कितनी रकम हुई ?' महणसिंह–'हजूर ! कुल रकम ८४ लाख है।'
यह सुनकर सब आश्चर्य व्यक्त करने लगे- 'हे ! चौरासी लाख ! तब तो आ बनी ! अब राजाजी इसे दण्ड दिये बिना न छोड़ेंगे।' परन्तु सबके आश्चर्य के बीच राजाजी ने अपने सेवक को आदेश दिया-'खजांची से कहो सोलह लाख रुपये राजकोष से निकल कर लाये।' सभी विस्मित-से रह गये कि ये सोलह लाख रुपये पता नहीं, क्यों मंगवा रहे हैं राजाजी? यह रहस्य किसी की समझ में न आया । इतने में खजांची १६ लाख की थैली लेकर हाजिर हुआ। राजाजी ने उससे कहा'खजांची ! यह सोलह लाख की थैली सेठ महणसिंह को दे दो। आज से मेरे प्रजाजनों में सत्यनिष्ठ सेठ महणसिंह कोटिध्वज कहलाएगा । सत्य के पुजारी सेठ महणसिंह को उसकी सचाई के लिए मेरी ओर से यह पुरस्कार है। 'धन्य हो, महणसिंह तुम्हारी सत्यता को !' और तभी सारा उपस्थित जनसमुदाय एक स्वर से बोल उठा-'धन्य हो, सत्यता का सम्मान करने वाले को !'
इसके पश्चात सत्यनिष्ठ सेठ महणसिंह को ससम्मान विदा किया। सारी सभा विसर्जित हुई।
बन्धुओ ! राजा फिरोजशाह ने सेठ महणसिंह को पुरस्कृत और सम्मानित किया था, वह केवल धन के कारण नहीं, परन्तु उनकी सत्यता के कारण । श्री गौतम महर्षि ने सच ही कहा है-'सत्यनिष्ठ 'श्री' पाता है।' प्रतिष्ठा, पुरस्कार, सम्मान, यणःकीर्ति, पद आदि सब भौतिक श्री है, जो सत्य के पुजारी को प्राप्त होती है।
राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी का कथन है-'सत्य एक विशाल वृक्ष है । उसकी ज्यों-ज्यों सेवा की जाती है, त्यों-त्यों उसमें अनेक फल आते हुए नजर आते हैं। उनका कभी अन्त नहीं आता।'
___ सत्य के पुजारी का नैतिक बल इतना बढ़ जाता है कि उसकी तुलना दस हजार हाथियों के बल के बराबर की जाती है। बड़ी से बड़ी बौद्धिक शक्तियाँ, मशीनी ताकतें और मानवीय संगठन भी सत्य के समक्ष परास्त होते देखे जाते हैं। सत्यवादी हरिश्चन्द्र की सत्यनिष्ठा के सामने विश्वामित्र को घुटने टेकने पड़े।
महात्मा गांधी की सत्याग्रहिता के समक्ष ब्रिटिश साम्राज्य जैसी शक्तिशाली
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org