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कृतघ्न नर को मित्र छोड़ते २०१ रहता । लोग उसके गुणों के प्रति भी सन्देह करने लगते हैं कि न जाने कब यह आदमी बदल जाए, क्योंकि इसमें कृतघ्नता का भारी दुर्गुण है । सर फिलिप सिडनी (Sir P. Sidney) ने सच ही कहा है
"Ungratefulness is the very poison of manhood" 'कृतघ्नता मानवता का तीव्र जहर है।'
भारतीय संस्कृति में कृतघ्न को बहुत ही नीच और निकृष्ट व्यक्ति माना गया है । वाल्मीकि रामायण में कृतघ्न व्यक्ति की शुद्धि के लिए कोई प्रायश्चित्त नहीं बतलाया है
गोध्ने चैव सुरापे च, चौरे भग्नवते तथा ।
निष्कृतिविहिता सद्भिः, कृतघ्ने नास्ति निष्कृतिः ।। गोवधकर्ता, शराबी, चोर और व्रतभ्रष्ट, इन सब के लिए तो सत्पुरुषों ने प्रायश्चित्त का विधान किया है, लेकिन कृतघ्न की शुद्धि के लिए कोई प्रायश्चित्तविधि नहीं बताई।
सचमुच, कृतघ्नता इतना बड़ा पाप है कि वह सारी पवित्रता को नष्ट करके जीवन को कालिमा से आच्छादित कर देता है। कृतघ्नता व्यक्ति के हृदय में निहित क्रूरता और माया को सूचित कर देती है । कृतघ्न व्यक्ति की निकृष्टता एवं अधमता को सूचित करने वाला एक रोचक दृष्टान्त मुझे याद आ रहा है
एक ऋषि गंगास्नान करके आ रहे थे। सामने से एक चाण्डालिनी सिर पर एक टोकरी में मरा हुआ कुत्ता रखे हुए तथा एक हाथ में गंदगी से भरा हुआ खप्पर लिए आ रही थी। चांडालिनी के हाथ रक्त से सने हुए थे, फिर भी वह एक हाथ से रास्ते पर पानी छींटती चल रही थी। ऋषि को उसकी यह चेष्टा देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ । उन्होंने उससे पूछ ही लिया
कर खप्पर, सिर श्वान है, लहू ज खरड़े हत्थ ।
छिड़कत मग चंडालिनी ! ऋषि पूछत है बत्त ॥ ..
अर्थात्-"तेरे हाथ में खप्पर, सिर पर मरा हुआ कुत्ता, खून से लथपथ हाथ, फिर भी चाण्डालिनी ! तू रास्ते में पानी छींटकर मार्गशुद्धि कर रही है, क्या तुझसे भी अधिक कोई अपवित्र है, जो तू इस प्रकार शुद्धि कर रही है ?" ऋषि का प्रश्न सुनते ही विज्ञ चाण्डालिनी ने बड़ा मार्मिक उत्तर दिया
तुम तो ऋषि भोले भए, नहीं जानत हो भेव ।
कृतघ्न नर की चरणरज, छिटकत हूँ गुरुदेव ! गुरुदेव ! क्या बताऊँ ? आप ऋषि तो बन गए, पर रहस्य हाथ नहीं लगा। आप दुनियादारी के मामले में भोले हैं । मैं चाण्डालिनी हूँ, पर मेरा जो कर्तव्य है,
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