________________
यत्नवान मुनि को तजते पाप : १
२३७
कमरे की सफाई करता है । उस कार्य को वह बेगार समझता है, और जैसे-तैसे बिना किसी उपयोग से रजोहरण से वह कचरे को घसीट देता है। न तो वह इस प्रमार्जनक्रिया में जीव-जन्तुओं का ध्यान रखता है. और न ही मन को इस क्रिया में एकाग्र करके सेवाभाव से करता है। बल्कि इस बेगार-सी अधूरी प्रमार्जनक्रिया को करके भी वह अपने भक्तों, अनुयायियों आदि से प्रशंसा पाने, या सेवाभावी पद प्राप्त करने की धुन में रहता है । वह प्रमार्जनक्रिया चुपचाप नहीं करता, किन्तु बार-बार अपने संघाड़े के वृद्ध साधुओं को गिना-गिनाकर गर्जन-तर्जन करके करता है।
मैं आपसे पूछता हूँ कि प्रमार्जनक्रिया तो दोनों जगह एक-सी है, दोनों कमरे एक ही साइज के हैं, उतनी ही सफाई दोनों करते हैं, लेकिन क्या दोनों की प्रमार्जनक्रिया में भावों और परिणामों की दृष्टि से अन्तर नहीं है ? अवश्य ही अन्तर है, लाख गुना अन्तर है । पहले साधु की प्रमार्जनक्रिया केवल द्रव्यक्रिया नहीं, भावक्रिया भी है, जबकि दूसरे की प्रमार्जनक्रिया केवल द्रव्यक्रिया है—निर्जीव-सी क्रिया है।
सफाई की क्रिया तो हमारी ये बहनें भी करती हैं और मर्यादा पुरुषोत्तम राम की भक्ता शबरी भी करती थी। वह जंगल में ऋषियों के आश्रम से पम्पा सरोवर तक का मार्ग जो कि कंकरीला व कटीला था, प्रतिदिन सबेरे पौ फटते समय साफ करती थी। वह भजन गाती, भक्ति की मस्ती में बहुत ही उमंग से समग्र मन को सफाई की क्रिया में तन्मय करके सफाई करती थी। वह इस भावना से सफाई करती थी कि इस रास्ते से पवित्र ऋषियों का आवागमन होता है, उनके चरणों में काँटेकंकड़ न चुभे, वे शान्ति से इस पथ को पार करें और मुझे उनकी चरणरज मिले। कितनी उच्च भावना और भक्ति थी सफाई की क्रिया के पीछे ! शबरी का इस सफाई क्रिया के पीछे अपना निजी स्वार्थ, पद या नामबरी की लिप्सा नहीं थी, न ही ऋषियों से कोई प्रशंसा या अभिनन्दन पाने की धुन थी, उलटे शबरी को इस सफाई क्रिया से उस समय गालियाँ और भर्त्सना की बौछार ही पल्ले पड़ी, जबकि ऋषियों ने एक दिन प्रतिदिन से कुछ जल्दी आकर उस मार्ग की सफाई करते हुए शबरी को देख लिया। वे कहने लगे-"अरी दुष्टे ! तूने हमारे मार्ग को अपवित्र कर दिया, हम तो इतने दिन जानते ही नहीं थे कि तू इस मार्ग को साफ करती है, नहीं तो हम तुझे कभी के यहाँ से धक्का देकर निकाल देते । आज तुझ काली-कलूटा शूद्रा का मुख देखने को मिला है, पता नहीं, दिन कैसा निकलेगा ?" परन्तु वह शबरी थी, जिसने गालियों का पुरस्कार पाकर भी सफाई का कार्य नहीं छोड़ा। वह सफाई को भगवान का कार्य समझती थी। 'Work is worship' कार्य ही भगवत्पूजा है, यह मन्त्र जैसे उसके रोम-रोम में बस गया था।
___ बन्धुओ ! क्या आप इस प्रमार्जनक्रिया को यतनायुक्त नहीं कहेंगे? मैं तो यही कहूँगा कि साधु भी प्रत्येक क्रिया को, इसी प्रकार समर्पणभाव से, उसी में दत्त
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org