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यत्नवान मुनि को तजते पाप : १ २३१ जो साधक यतनापूर्वक प्रवृत्ति करता है, वह श्रद्धा, बोध और चारित्र पालन की भावना के कारण सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र का आराधक कहा गया है।
तात्पर्य यह है कि साधु को प्रत्येक प्रवृत्ति में, चाहे वह छोटी प्रवृत्ति हो या बड़ी, चाहे वह मानसिक हो, वाचिक हो अथवा कायिक हो, स्वसम्बन्धित हो या दूसरों की सेवा से सम्बन्धित हो, यतना को श्वासोच्छ्वास की तरह साथ लेकर चलना चाहिए।
___ महानिशीथ में तो यहाँ तक बताया गया है कि साधु को श्वास लेने और छोड़ने की क्रिया भी यतनापूर्वक करनी चाहिए, लापरवाही से अयतनापूर्वक नहीं। जो साधु अयतनापूर्वक श्वासोच्छ्वास क्रिया करता है, उसको धर्म कहाँ से होगा, तप भी कहाँ से होगा ?"१
यतना : किसी प्राणी को कष्ट न पहुंचाते हुए क्रिया तात्पर्य यह है कि यतना किसी भी प्राणी को कष्ट न पहुँचाते हुए, अपनी आत्मा को ज्ञान-दर्शन-चारित्र की पगडंडी पर चलाते हुए सुख-शान्तिपूर्वक जीने की कला है। यतना में यद्यपि प्रवृत्ति मुख्य प्रतीत होती है, परन्तु प्रवृत्ति एकान्तरूप से मुख्य नहीं है, कई जगह अमुक क्रिया अच्छी और धार्मिक होते हुए भी उससे निवृत्ति लेनी पड़ती है, क्योंकि उसमें प्रवृत्त होने से पृथ्वीकायिक आदि जीवों की विराधना होने की आशंका रहती है । इसलिए यतना का एक अर्थ' पृथ्वी आदि जीवों के आरम्भ का त्याग करने रूप यत्न भी किया गया है।
___ अयतना से हानि, यतना से लाभ साथ ही वहाँ यह भी बताया गया है कि "अयतनापूर्वक जो साध चलता है, बोलता है, बैठता, उठता है, सोता-जागता है, भोजन करता है यानी सभी क्रियाएँ करता है, वह प्राणियों की हिंसा करता है । वह पाप कर्म का बन्ध करता है, जिसका फल अत्यन्त कटु होता है ।"3 प्रवचनसार में भी यह बताया गया है
मरदुव जियदुव जीवो, अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा । पयादस्स पत्थि बंधो, हिंसामेत्तण समिदस्स ।।
१ "जेसिं मोत्तू ण ऊसासं नीसासं वाणुजाणिणं तमपि जयणाए।
न सव्वहा अजयणाए, ऊससंतस्स कओ धम्मो, कओ तवो?"-महा० ६ अध्य० २ "पृथिव्यादिस्वारम्भ परिहाररूपे यत्ने"
--दशवकालिक अ० ४ ३ "अजयं चरमाणो (चिट्ठमाणो, आसमाणो, सयमाणो, भुजमाणो, भासमाणो) य पाणभूयाइं हिसइ । बंधइ पावयं कम्मं त से होइ कडुयफलं।'
--दशवैकालिक सूत्र, अ० ४
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