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यत्नवान मुनि को तजते पाप : १ २३३ क्रिया करे, उसका मन श्वासोच्छ्वास की तरह बराबर उसके साथ रहे । उत्तराध्ययन सूत्र में साधक के चलने की क्रिया की यतना विधि बताई गई है
इंदियत्थे विवज्जित्ता, सज्झायं चेव पंचहा ।
तम्मुत्ती तप्पुरक्कारे उवउत्त इरियं रए ।-२४/८ "साधक जब गमनादि चर्या करे तब मन को इन्द्रियों के विषयों से बिलकूल हटा ले, वाचना-पृच्छना आदि ५ प्रकार के स्वाध्याय से भी मन को दूर कर ले, एकमात्र उसी चर्या में मन को केन्द्रित कर ले, उसी चर्या को सामने रखे, इस प्रकार उपयुक्त होकर ईर्या में रत रहे ।"
यतनापूर्वक चलने और अयतनापूर्वक चलने की क्या पहिचान है तथा इनसे क्या लाभ-हानि है ? इसे मैं एक दृष्टान्त द्वारा समझाता हूँ
दो मुनि चल रहे हैं। उनमें से एक मुनि ईर्यासमितिपूर्वक यतना से चल रहे हैं, उनकी गमनक्रिया के साथ मन संलग्न है। जीवरक्षा का लक्ष्य है। जबकि दूसरे मुनि इधर-उधर ताकते हुए धड़ाधड़ चले जा रहे हैं, उनका ध्यान ईर्याशोधन की ओर नहीं है, उनका मन गमनक्रिया के साथ उपयुक्त नहीं है।
प्रथम मुनि के द्वारा बचाने का यत्न किये जाने पर भी अकस्मात कोई त्रस जीव पैर के नीचे दबकर कुचल गया या मर गया। दूसरे मुनि के द्वारा अयतनापूर्वक चलने पर भी एक भी त्रस जीव न मरा । आपकी दृष्टि में शायद पहला यत्नवान मुनि सदोष और दूसरा अयत्नवान मुनि निर्दोष प्रतीत होगा, पर वीतराग प्रभु की दृष्टि में प्रथम मुनि द्रव्यहिंसा के भागी जरूर हैं, पर भावहिंसा के नहीं, जबकि दूसरा मुनि भावहिंसक है, षट्काय के जीवों का विराधक है।
द्रव्यहिंसा से भावहिंसा अति भयंकर और पापकर्मबन्धक है ।
प्रथम मुनि यत्नवान होने से आराधक है। उसकी इन्द्रियाँ जीवमात्र के प्राणों को बचाने में यत्नवान थीं, तथापि लाचारीवश जो द्रव्यहिंसा होगई, उसका उसे पश्चात्ताप होता है, प्रायश्चित भी वह करता है, लेकिन दूसरा मुनि तो अयत्नशील होने से विराधक होता है । उसमें जीवों की प्राणरक्षा करने का यत्न ही नहीं है।
निष्कर्ष यह है कि जिस समय जो प्रवृत्ति, चर्या या क्रिया की जाए उसी में मन को पूरी शक्ति से सर्वतोभावेन लगाना ही यतना है, जयणा है, यत्नाचार है । इस प्रकार एक ही अभीष्ट क्रिया में शक्ति लगाने से वह क्रिया निखर जाती है, वह क्रिया दोषमुक्त और शुद्ध हो जाती है । उस पवित्र क्रिया से अपना भी कल्याण होता है, दूसरों का भी। ऐसा न करने पर साधक का मन कहीं और होगा और क्रिया कुछ और होगी। सामायिक जैसी क्रिया भी केवल द्रव्यक्रिया और निष्फल क्रिया होकर रह जाएगी। एक जैनाचार्य ने इस सम्बन्ध में बहुत ही गम्भीरतापूर्वक प्रतिपादन किया है
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