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कृतघ्न नर को मित्र छोड़ते
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कृतघ्न बनने से तीसरी क्षति यह है कि वह अभिमान में आकर अपने आपको ही सब कुछ तथा सर्वज्ञानी समझ बैठता है। गोशालक में जब कृतघ्नता आ गई थी, तब वह भगवान महावीर जैसे परमोपकारी द्वारा किये गये उपकारों को भूल गया, उलटे उन पर ही तेजोलेश्या छोड़कर उनका अपकार करने पर तुल गया, उनके दो शिष्यों को उसने तेजोलेश्या के प्रयोग से मार डाला था। इतना ही नहीं, अहंकार में आकर अपने आपको सर्वज्ञ और तीर्थंकर कहना और श्रमण भगवान महावीर की जगह-जगह निन्दा करना शुरू कर दिया था। इसका परिणाम यह हुआ कि गोशालक भगवान महावीर से कुछ भी नवीन ज्ञान उपार्जित न कर सका, उसका विकास वहीं ठप्प हो गया। जिसका अन्तिम समय में उसे अवश्य पश्चात्ताप हआ, उसने भगवान महावीर के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करके आत्मालोचन किया और अपना जीवन सुधार लिया।
निष्कर्ष यह है कि कृतघ्न व्यक्ति अहंकार से ग्रस्त होकर किसी भी योग्य, उपकारी व्यक्ति से कुछ भी नहीं सीख पाता, उसकी प्रगति वहीं ठप्प हो जाती है।
कृतघ्न बनने पर कोई भी व्यक्ति सहसा उसका उपकार करने को तैयार नहीं होता । एक पाश्चात्य विद्वान् टिमोथी डेक्सटर (Timothy Dexter) के शब्दों में कृतघ्न के प्रति जनता की भावना का चित्रण देखिये
"An ungrateful man like a hog under a tree eating acorns, but never looking up to see where they come from."!
"कृतघ्न मनुष्य एक सुअर के समान है, जो एक पेड़ के नीचे फल खाता रहता है, लेकिन कभी ऊपर मुंह उठाकर नहीं देखता कि ये फल कहाँ से आते हैं ?"
कृतघ्न एक प्रकार से मुफ्तखोर है, जो बिना ही कुछ बदला चुकाये मुफ्त में दूसरों के उपकार पर गुलछरें उड़ाता है । इसीलिए वह दूसरों की सहानुभूति खो देता
अकृतज्ञ पुरुष के प्रति किसी के दिल में प्रेम नहीं उमड़ता । संकट अथवा आफत के समय वह जब दूसरों के सामने सहायता के लिए हाथ फैलाता है, तब उसे प्रायः कहीं से भी सहायता नहीं मिलती।
कृतघ्न की सबसे बड़ी हानि यह है कि वह अपनी संतान में भी कृतघ्नता के बीज बो देता है। उसकी संतान उसके खुद के प्रति भी कभी कृतज्ञता के दो शब्द, या धन्यवाद प्रगट नहीं करती। वह भी कृतघ्नता के सांचे में ढलकर तैयार होती है। कृतघ्न बहुत चाहता है कि मेरी संतान मेरे प्रति एहसानमंद हो, वफादार हो, नमकहलाल हो, तथा कृतज्ञता प्रगट करे, किन्तु उसे कभी कृतज्ञता के मधुर शब्द सुनने को नहीं मिलते। फिर कृतघ्नता के सांचे में ढली हुई वह संतति दूसरों के साथ भी कृतघ्नता का व्यवहार करती है, सबकी सहानुभूति खो बैठती है।
इसलिए कृतघ्न बनना घाटे का सौदा है, कृतज्ञ बनकर मनुष्य जितना कुछ
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