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कृतघ्न नर को मित्र छोड़ते २१७ पर सेठ ने सारी परिस्थिति बताई । लड़के ने जब सहायता की बात सुनी तो उसकी
आँखें डबडबा आई । बोला- "मेरे पास जो कुछ है, वह सब आपका है। मुझे तो पता ही नहीं चला, अन्यथा मैं कभी का हाजिर हो जाता । अब भी आप कोई चिन्ता न करें। मैं अभी वहाँ जाकर सारा काम पूर्ववत् व्यवस्थित करके आता हूँ, तब तक आप यहीं विराजें।" यों कहकर वह काफी धनराशि लेकर अपने कुछ गुमाश्तों को साथ ले सेठजी के नगर में पहुँचा । सारी बिगड़ी हुई स्थिति का अध्ययन किया। जो मकान आदि गिरवी रखे हुए थे, सब छुड़ाए। सेठ के ऊपर जिनकी रकम थी, वह ब्याज सहित चुका दी और जिनसे सेठजी का लेना था, वे लोग भी राजाज्ञा के कारण यथाशक्ति चुकाकर फैसला कर गए । कुछ विश्वस्त पुराने और कुछ नये गुमाश्तों को रखकर व्यापार चालू किया। छह महीनों में पहले से भी बढ़िया काम चलने लगा । तब वह युवक अपने उपकारी सेठजी को इस नगर में ले आया । सब प्रकार से सेठ-सेठानी का मन प्रसन्न हो गया, वे अन्तर् से इस युवक को हजारों आशीर्वाद बरसाने लगे।
बन्धुओ ! सेठ ने एक अनाथ बालक को अपने बराबर का सेठ बना दिया, उस उपकार का बदला उसने बार-बार कृतज्ञता प्रकट करके चुकाया, फिर भी वह पूर्णतया उऋण तभी हो सकता है, जब वह सेठ को धर्ममार्ग में लगा दे।
अगर वह कृतघ्नता करता और इस सेठ को गिरती दशा में न संभालता तो क्या उसे कुछ भी लाभ होता ? व्यासजी इसका उत्तर महाभारत में स्पष्ट शब्दों में देते हैं
कुतः कृतघ्नस्य यशः, कुतं स्थानं, कुतः सुखम् ?
अश्रद्धयः कृतघ्नो हि, कृतघ्ने नास्ति निष्कृतिः ॥ "कतघ्न को कहाँ से यश मिल सकता है ? कहाँ उसे स्थान और सुख मिल सकता है ? वह सबका अश्रद्धेय और निन्दापात्र बन जाता है, कृतघ्न की आत्मशुद्धि के लिए कोई प्रायश्चित्त नहीं है।"
जो कृतज्ञ होता है, वह अपनी माता के सिवाय दूसरी किसी महिला का स्तनपान करके भी उस दुग्धपान का बदला चुकाये बिना नहीं रहता । वर्षों पहले 'कल्याण' में एक सच्ची घटना प्रकाशित हुई थी। नीरू नामक मुसलमान की पत्नी का देहान्त हो जाने पर उसके लड़के अहमद को पड़ोस में रहने वाली एक ग्वालिन ने अपना दूध पिलाकर बड़ा किया था। कुछ वर्षों बाद अहमद मथुरा के एक हॉस्पीटल में कपाउंडर हो गया था। संयोगवश उस ग्वालिन की छाती में अत्यन्त पीड़ा होने से वह अपने पति के साथ मथुरा के उसी हॉस्पीटल में इलाज कराने आई। डॉक्टर ने कहाइसके खून चढ़ाना होगा। जिसका खून इसके खून से मेल खाए, वही दे सकता है। पालित पुत्र अहमद कंपाउडर ने अपना बिलकुल परिचय न देकर दो सौ रुपये लेकर खून दिया। वह बिलकुल स्वस्थ होकर अपने पति के साथ ग्वालपाड़ा (आसाम) चली
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