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सत्यनिष्ठ पाता है श्री को : २
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कम बीस हजार तो देने ही चाहिए।" इस पर खानुमूसा ने सेठ से कहा- "आप तो मेरे मुरब्बी हैं । मैंने अपनी जबान से जब एक बार सोलह हजार रुपये कह दिये तो अब उसके उपरान्त एक पाई भी लेना मेरे लिए हराम है। मैं सत्य पर दृढ़ हूँ, इसलिए सोलह हजार से अधिक नहीं ले सकता।" जौहरी ने सोलह हजार रुपयों की स्वर्णमुद्राएँ गिनकर दे दी, जिन्हें लेकर सेठ और खानुमूसा घर आए। .
आप सुनकर आश्चर्य करेंगे कि उस सत्यवादी खानुमूसा ने सेठ की अनुमति लेकर बम्बई में अपनी दुकान की। उसमें लाखों रुपये कमाये । यही नहीं, उन्होंने बम्बई में और देश-विदेश में खूब प्रसिद्धि भी पाई । वे नामी लखपतियों में गिने जाने लगे। इसके अतिरिक्त लोकोपयोगी कार्यों में लाखों रुपये दान देकर अपनी यशकीर्ति बढ़ाई। कुछ ही वर्षों के बाद धन्धे से निवृत्त होकर धोराजी रहने लगे और खुदा की बन्दगी में अपना जीवन बिताने लगे।
वास्तव में खानुमूसा की सत्यनिष्ठा, सत्य-आचरण के कारण समृद्धि, कीर्ति, प्रतिष्ठा, परिवार में परस्पर प्रेम और सेवा की भावना आदि के रूप में उन्हें भौतिक श्री मिली और जीवन के सन्ध्याकाल में वे आध्यात्मिक श्री बढ़ाने में जुट गये ।
इस तरह सत्य समस्त सच्ची प्राप्तियों का मूलाधार है । वह स्वयं एक प्रकार की विमल विभूति है। यही साधन, मार्ग और लक्ष्य है । वास्तव में सत्य पर चलने वाले व्यक्ति की प्रत्येक सदिच्छा पूर्ण होकर रहती है । पारसी धर्म के प्रसिद्ध ग्रन्थ यश्न (हा ५१११) में भी इसी बात का समर्थन किया गया है
"अषा अंतर-चर इती । श्यओथनाइस् मज्दा वहिश्तम् । 'अषा-सत्य पर चलता हुआ मनुष्य अपनी इस निर्णय करने वाली शक्ति से अपने हृदय की बड़ी से बड़ी इच्छा पूरी कर सकता है।'
और योगदर्शन में तो पतंजलि ऋषि ने सबसे बड़ी कह दी, सत्यनिष्ठा के परिणाम के सम्बन्ध में
_ 'सत्यप्रतिष्ठायां कियाफलाश्रयत्वम् ।' जीवन में सत्य पूर्णरूप से प्रतिष्ठित (स्थित) हो जाने पर उसकी मनोवांछा के साथ जैसी मानसिक, वाचिक, कायिक क्रिया होती है तदनुसार वह फलाश्रयी हो जाती है। यानी उसके मन से जो सत्य विचार उठना है, वचन से जो सत्यवाणी निकलती है और काया से जो सत्यचेष्टा होती है, तदनुसार ही वे परिणत हो जाते हैं। सत्यनिष्ठ व्यक्ति का वचन अमोघ हो जाता है। इस प्रकार की उपलब्धि या सिद्धि भौतिक श्री का उत्कृष्ट रूप है, जो सत्यनिष्ठ को प्राप्त हो जाती है।
___ आध्यात्मिक श्री क्या और कैसे ? मैं पहले कह चुका हूँ कि सत्यनिष्ठा से जैसे भौतिक श्री प्राप्त होती है, वैसे ही आध्यात्मिक श्री भी। यह बात मैं या गौतम ऋषि ही नहीं कहते, जैन-आगमों में यत्र
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