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सत्यनिष्ठ पाता है श्री को : २
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सामने के एक मकान के चबूतरे पर आ बैठे । सोचने लगे-- “ शाम तक यहीं बैठता हूँ, अगर कोई इस माल का मालिक या उसका आदमी आए तो मैं उसे माल सौंपकर फिर बगसरा जाऊँगा । और तो कोई उपाय नहीं सूझता । "
खानुमूसा के मन में शुभविचारों की तरंगें उठ रही थीं, तभी घोड़ा दौड़ाता हुआ एक घुड़सवार एकाएक वहाँ आ पहुँचा । खानुमूसा के पास इकट्ठी हुई भीड़ ने पसीने से तरबतर एवं घबराए हुए उस सवार से पूछा - "भाई ! कैसे घबराए हुए हो; क्या बात है ?'' सवार बोला- “भाइयो ! क्या कहूँ ? गजब हो गया है आज तो !" "क्या हो गया ? शान्ति से कहो ।” सबने उत्सुकतापूर्वक पूछा । आगन्तुक ने कहा"हमारे गाँव (चूड़ाराणपुर) के मोलेसलाम दरबार की रानी साहिबा चूडाराणपुर से साणराणपुर जा रही थीं। साथ में सिगराम तथा ८ - १० सवार थे। रास्ते में वाघणिया से जब वे गुजर रही थीं, तभी अचानक लगभग ५० हजार के गहनों से भरा एक बड़ा बटुआ गिर पड़ा। जब वे बगसरा पहुँचकर विश्राम के लिए रुकीं, वहाँ देखा तो बंटुआं गायब ! उसी बटुए की तलाश करने मैं वहाँ से निकला हूँ । अगर बटुआ न मिला तो हमारी तो शामत आ जाएगी । दरबार को मुँह बताने लायक नहीं रहेंगे हम ।” यों कहते वह गद्गद हो गया ।
खानुमूसा ने जब यह सुना तो वे खड़े हुए और आगन्तुक से पूछने लगे कि उस बटुए में कौन-कौन से गहने थे ? सवार ने फटाफट उनके नाम गिना दिये । यह सुनकर खानुमूसा ने तुरन्त वह बटुआ सवार के सामने रखा और पूछा - "देखो यह बटुआ तो नहीं था ?" सवार हर्षित होता हुआ आनन्दमग्न होकर बोला - "हाँ भाई ! यही है वह बटुआ । आपको यह कहाँ मिला था ?"
"भाई ! मुझे यह रास्ते में मिला था, वहाँ से लेकर मैं यहाँ आया और इसके मालिक की प्रतीक्षा में बैठा था । इतने में आप आ गए। लो, इन सब मनुष्यों के समक्ष खोलो इस वटुए को और सब गहने देख लो ।” बटुआ खोला और एक-एक गहना निकालकर देखा तो सभी गहने ज्यों-के-त्यों रखे मिले । अब तो खानुमूसा, सवार तथा गाँव के कुछ प्रतिष्ठित व्यक्ति मिलकर बगसरा पहुँचे । वहाँ रानी साहिबा चातक की तरह उत्सुक नेत्रों से प्रतीक्षा कर रही थीं । इतने में तो वह घुड़सवार सभी को साथ लेकर पहुँचा । उसके हृदय में हर्ष समा नहीं रहा था । उसने गहनों का बटुआ रानीजी को सौंपते हुए अथ से इति तक सारी बात कही । रानी साहिबा ने खानुमूसा का महान् उपकार माना और उनकी भलमनसाहत से प्रसन्न होकर लगभग एक हजार के गहने देने लगीं । परन्तु सत्यपरायण खानुमूसा ने साफ इन्कार करते हुए कहा - "इसमें से एक कण भी लेना मेरे लिए सूअर के मांस के समान है । आपके भाग्य के थे, आपको वापिस मिल गए । मैंने तो अपने कर्तव्य तथा सचाई का - पालन किया है, कोई उपकार नहीं किया । "
यों कहकर खानुमूसा चलने लगे, रानी साहिबा वगैरह ने उन्हें बहुत कुछ
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