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संभिन्नचित्त होता श्री से वंचित : १ १३१ जाती है। उसके विकास और उन्नति की सारी सम्भावनाएँ काफूर हो जाती है । निराशा, विषाद और आर्तध्यान उसे रोग की तरह घेरे रहते हैं। न उसे भोजन अच्छा लगता है, न नींद आती है और न किसी के साथ प्रेम से बातचीत करना सुहाता है। वह जरा-जरा-सी बात पर कुढ़ता, खीजता और चिढ़ता है । बड़ी-बड़ी अप्रिय एवं अस्वास्थ्यकर कुण्ठाओं से उसका चित्त भरा रहता है ।
संभिन्नचित्त : तुनुकमिजाज ऐसा भग्नचित्त व्यक्ति तुनुकमिजाजवाला भी बन जाता है। तुनुकमिजाजी एक बड़ी भारी दिमागी बीमारी है, जो प्रतिक्षण चित्त की प्रसन्नता, हँसी-खुशी और सामंजस्य पर चोट करती रहती है । तुनुकमिजाजी के कुछ उदाहरण लीजिए--
एक युवक की अपने कार्यालय में किसी कारणवश थोड़ी-सी भर्त्सना हो गई कि बस तुनुकमिजाज का पारा लाल बिन्दु तक चढ़ गया। उसके प्रतिकूल कल्पनाओं का झंझावात उठा-अब तो इस कार्यालय में अथवा अमुक अधिकारी के मातहत काम करने का धर्म ही नहीं रहा । एक स्वाभिमानी व्यक्ति ये सब बातें कैसे बरदाश्त कर सकता है ? आखिर मैं भी सरकारी नौकर हूँ। मेरी भी अपनी कुछ प्रतिष्ठा है। कुछ भी हो, ऐसा अपमानित जीवन जीकर नौकरी अब नहीं करूंगा।' बस, इस कल्पना के सक्रिय होने में क्या देर लगती है ? तुनुकमिजाज युवक ने फट से इस्तीफा लिखकर पेश कर दिया । अधिकारी ने उसका इस्तीफा मंजूर कर लिया और वह टाइप होकर उसके हाथ में आ गया। बस, तुनुकमिजाज साहब उसे लेकर अपने सहकर्मचारियों की मेजों पर जाकर लगे बड़बड़ाने—'भाई ! मैंने तो इस नौकरी से अलविदा ले ली है। मैं सरकार से इस बात की लिखा-पढ़ी करूंगा। जरा-जरा-सी बात पर बिगड़ उठना अफसरों की आदत बन गई है। अपने मातहतों को तो वे तिनके की तरह तुच्छ समझते हैं।' अपनी सनक में उसे भान ही नहीं रहता कि जिस सहकर्मचारी की मेज के पास खड़ा वह गुब्बार निकाल रहा है, उस पर क्या बीतेगी ? यदि उसका अधिकारी यह सुन या देख लेगा तो उसे भी इस अनर्गल बातों में शामिल समझ लेगा, उसकी भी नौकरी से बरखास्त कर देगा। आफिसर से उसे बिगाड़ना नहीं है, बनाये रखना है। लेकिन तुनुकमिजाज को इसकी परवाह नहीं होती है । आखिरकार साथी उसे कह ही देते है-"कृपया ये सब बातें यहाँ न करिये, बाहर जाकर आपके मन में आए सो कहें और बकें।"
बस, इस पर तुनकमिजाज का पारा और गर्म हो गया। अपना अपमान समझकर साथी को भी विरोधी मानने लगे और उसी सनक में बकने लगे-"ये सब अफसरों के गुलाम हैं। किसी में भी स्वाभिमान नहीं है । सबके सब बुरे हैं । कोई उसकी बात का समर्थन नहीं करता।'
जब घर गया, एकाकी बैठकर ठंडे दिल-दिमाग से सोचा तो अपनी गलती मालूम हुई, पश्चात्ताप हुआ कि जरा-सी बात पर आफिसर से क्यों बिगाड़ लिया। पर अब क्या हो सकता था ? अब तो उसका नाम कट चुका होता है, आचरण
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