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संभिन्नचित्त होता श्री से वंचित : २.
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है । असफलता का भय मनुष्य के चित्त को संशयशील ही नहीं बनाता, बल्कि वह सच्चे रास्ते पर चलने में बाधक बन जाता है। सच्चे रास्ते से मतलब है—अपने विवेक द्वारा जिस रास्ते पर उसने चलने का निश्चय किया है, वह ! ऐसी दशा में व्यक्ति चलना चाहता है—विवेक द्वारा निश्चित रास्ते पर लेकिन चल पड़ता हैउलटे रास्ते पर । यही अव्यवस्थितचित्त की निशानी है, इसे चित्तभ्रम या स्मृतिविभ्रम या चित्त का दीवानापन भी कहते हैं । चित्त की यह दुःस्थिति काफी देर तक रहने पर मानव की मानसिक स्नायुग्रन्थियाँ अत्यन्त निर्बल होकर जड़-सी हो जाती
चित्त की इस अव्यवस्थितता या विकृति का अकसीर इलाज यह है कि चित्त में किसी भी आघात या ठेस को गहराई से या देर तक टिकने मत दीजिए। जैसे चट्टान पर पानी पड़ता है, पर वह बह जाता है, चट्टान पर उसका कोई असर नहीं होता, वैसे ही बड़ी-बड़ी आपदाएँ, मुसीबतें, विघ्न-बाधाएं या प्रतिकूलताएँ आपके चित्त की चट्टान पर पड़ें तो भी उनसे घबराना नहीं चाहिए, न चित्त में उद्विग्न होना चाहिए । उतावले न होकर आपको शान्ति, धैर्य, साहस और विश्वास के साथ उन सभी आपदाओं का सामना करना चाहिए ।
व्यक्ति के चित्त की अव्यवस्थितता का कारण उसकी क्षणिक भावुकता, अधीरता और उत्तेजनाएँ हैं । अगर वह धैर्य से सोचे कि ये विपदाएँ स्वयं टलने वाली हैं, धीरे-धीरे अच्छा समय आने वाला है, मेरी समस्याएँ स्वतः ही हल होने वाली हैं, तो उसकी बहुत-सी चित्तव्यथाएँ स्वयं दूर हो जाती हैं। परन्तु व्यक्ति अपनी मनगढन्त कल्पनाओं द्वारा विघ्नबाधाओं को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर अधीर हो जाता है, इससे चित्त अव्यवस्थित हो जाता है, विजयश्री या सफलता कोसों दूर चली जाती है। संभिन्नचित्त का छठा अर्थ : अस्थिरचित्त
चित्त का एक कार्य या लक्ष्य में स्थिर न रहना भी संभिन्नचित्त है। चित्त की अस्थिरता का अर्थ है-चित्त का किसी एक विषय में स्थिर न रहना । साधारण मानव का चित्त गिरगिट की तरह रंग बदलता रहता है । यों बारबार चित्त का रंग बदलते रहने से चित्त की अस्थिरता मिटाई नहीं जा सकती । बहुधा मनुष्य चित्त को स्थिर करने के लिए एक मिनट का समय भी नहीं दे पाता । ऐसे गृहस्थ का चित्त पहले धन में, फिर प्रतिष्ठा में तदनन्तर कीति में भटकता रहता है। वह एक ठिकाने नहीं रहता। ऐसे पुरुषों के चित्त पर महापुरुषों की वाणी का प्रभुभक्ति का और शास्त्रज्ञान का कोई रंग नहीं चढ़ता । वे पुनः-पुनः अपने चित्त को उन्हीं विषयविकारों में लगाते रहते हैं । जैनाचार्य रत्नाकर ने हारकर प्रभुचरणों में इसी प्रकार की प्रार्थना की है
लोलेक्षणावक्त्रनिरीक्षणेन, यो मानसे रागलवो विलग्नः ।
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