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आनन्द प्रवचन : भाग ६
बातें सोचते रहे हैं, विफलता और विपन्नता के विचारों से जिन्होंने बिलकुल मुख मोड़ लिया है।
___विदेश में एक व्यक्ति बहुत वर्षों तक गरीब रहा, खाने-पीने तक का कोई ठिकाना न था। पर कुछ ही दिनों बाद वह एकाएक धनवान हो गया। उसके इस प्रकार अकस्मात धनवान होने के कारण एक लेखक द्वारा पूछे जाने पर उसने बताया कि “चिरकाल तक दरिद्रता में रहने पर जब मैं ऊब गया तो एक दिन मैंने अपने मन में दृढ़ निश्चय कर लिया कि चाहे कुछ भी हो, मैं अब दरिद्र नहीं रहूँगा । मैंने अपनी समस्त शक्तियों को दरिद्रता मिटाने में लगा दी। मैं एकचित्त, दृढ़निश्चयी होकर पुरुषार्थ करने लगा। इस प्रकार सतत प्रयत्न करके मैंने अपने चित्त से दरिद्रता का भाव बिलकुल निकाल फेंका । फलतः मेरा मुँह सफलता की ओर हो गया। चित्त की इस एकाग्रता और दृढ़निश्चय के फलस्वरूप मैं शीघ्र ही लक्ष्मी का कृपापात्र बन गया। फिर मैं धनवान होने के साथ ही सेवा-भावी संस्थाओं और सार्वजनिक कार्यों में दान देने लगा, गरीबों और दीन-दुःखियों को सहायता देने लगा। अपने खान-पान और रहन-सहन में भी मैंने यथोचित परिवर्तन कर दिया । यही मेरे श्रीसम्पन्न होने का रहस्य है । अब मुझे भलीभाँति ज्ञात हो गया कि मेरी दरिद्रता का कारण और कुछ नहीं, मेरा संशयशील, अनिश्चयी, अनेकाग्र और अविश्वासी चित्त ही था, जो मुझे दरिद्रता की दिशा में ले जाता था, मेरी शक्तियों को जिसने कुण्ठित कर दिया था। मेरे चित्त में से उत्साह, साहस, पराक्रम और कार्यक्षमता को निकालकर निराशा, निरुत्साह, शिथिलता, अकर्मण्यता और उदासी भर दी थी।"
गौतम ऋषि ने भी तो यही बात कही है कि जिस व्यक्ति का चित्त सम्भिन्न रहता है, उसे श्रीसम्पन्नता या लक्ष्मी प्राप्त नहीं होती, वह दरिद्रता से ओतप्रोत रहता है। श्री से वंचित रहता है । वास्तव में जिसके चित्त में निराशा, संशय और अविश्वास भरा रहता है, जो अपने चित्त को एकाग्र करके दृढ़ निश्चयपूर्वक किसी सत्कार्य में प्रवृत्त नहीं होता, उससे लक्ष्मी कोसों दूर रहती है, दरिद्रता दानवी ही उसकी सेवा में रहती है। भौतिक दरिद्रता से आध्यात्मिक दरिद्रता भयंकर
आप यह मत समझिए कि दरिद्रता केवल भौतिक जगत् में ही होती है। आध्यात्मिक जगत् में भी दरिद्रता होती है और वह भौतिक जगत् की दरिद्रता से अधिक भयंकर होती है। कारण यह है कि भौतिक जगत् की दरिद्रता प्रायः एक जीवन को ही बर्बाद करती है, परन्तु आध्यात्मिक जगत् की दरिद्रता अनेक जन्मों को बिगाड़ देती है। भौतिक जगत् में पूर्वकर्मवशात् प्राप्त दरिद्रता तो आध्यात्मिक श्रीसम्पन्न व्यक्ति के लिए सह्य, क्षम्य और वरदानरूप हो जाती है। वह स्वेच्छा से दरिद्रता को स्वीकार कर लेता है, और उसे अपरिग्रहवृत्ति का रूप दे देता है। . ....... कणाद ऋषि के समक्ष वहाँ के जनपद के राजा स्वयं भौतिक सम्पत्ति लेकर
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