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ऋद्ध कुशील पाता है अकीर्ति ६६ करने पर ही मनुष्य प्रतिष्ठा और कीर्ति अर्जित कर सकता है। जो उसे संसार में अमर कर देती है।
महापुरुषों के नाम पर कीति पाने की कला __ कई लोग, जिनमें अधिकांश वे लोग हैं, जो अपने जीवन में कुछ त्याग, सेवा, परोपकार, शीलपालन आदि करना-धरना नहीं चाहते, परन्तु 'सस्ती' कीर्ति पाने के लिए उन-उन महापुरुषों के अनुयायी बन जाते हैं, यहाँ तक कि उनके भक्त बनने का नाटक करते हैं । जैसे आजकल महात्मा गांधी के भक्त बनकर लोग खादी का वेष धारण कर लेते हैं और जीवन में कोई भी त्याग, नीतिमत्ता, सदाचार या सत्कार्य को नहीं अपनाते।
एक बार एक भाई दिल्ली गये। वहाँ वे अपने मित्र के साथ राजघाट महात्मा गाँधी की समाधि पर गए । उस मित्र की छोटी लड़की ने सबसे पूछा-"क्या आप जानते हैं कि इस समाधि के नीचे क्या गाड़ा हुआ है ?" इस लड़की का प्रश्न सुनकर सभी आश्चर्य में पड़ गए। एक विचारक ने कहा-"इस समाधि के नीचे महात्मा गांधी की तीन प्रिय वस्तुएँ गाड़ी हुई हैं-सत्य, अहिंसा और सादगी। इन तीन वस्तुओं पर बापूजी की समाधि बनाई गई है।" क्या आप ऐसा करने का आशय समझे ? महात्मा गांधी के अधिकांश पुजारी, अनुयायी या भक्त लोग उनकी समाधि के पास आकर बैठते हैं, उन्हें स्मरण करते हैं, लेकिन उनको जो तीन बातें अत्यन्त प्रिय थीं, उन्हें वे जीवन में स्मरण करना एवं उन पर आचरण करना नहीं चाहते, इसलिए समाधि के नीचे गाड़ रखी हैं कि कहीं वे बाहर जन-जीवन में न आ जाएँ।
आजकल लोग प्रायः अपने-अपने महापुरुषों के गुणगान करके, उनकी कीर्ति का गान करके ही रह जाते हैं. उनके द्वारा जीवनकाल में आचरित सत्कार्यों या धर्माचरणों को अपनाकर उनकी कीर्ति की परम्परा को आगे नहीं बढ़ाते । कई लोग उनकी कीर्ति का सिक्का भुना-भुनाकर स्वयं कीर्ति पाने का प्रयत्न करते हैं। परन्तु ये सब कीर्ति पाने के प्रयत्न न्यायोचित नहीं हैं।
कई लोग अपने मृतपुरुषों की कीर्ति बढ़ाने के लिए छत्री, समाधि या कोई स्मारक बनाते हैं, अथवा उनकी कब्र पर ही कुछ सुवाक्य खुदवाते हैं। परन्तु ये सब उपाय स्थायी एवं वास्तविक कीर्ति के सूचक नहीं है। मनुष्य की वास्तविक कीर्ति तो उसकी सत्कृतियों से सुगन्ध की तरह स्वतः फैलती है।
कीति की आकांक्षा : साधना में बाधक किसी भी प्रकार की आकांक्षा धर्माचरण या तप की साधना में बाधक है। जैनशास्त्र जगह-जगह इस बात को दोहराते हैं। कीर्ति की आकांक्षा से प्रेरित होकर जप, तप, धर्माचरण या सामायिकादि साधना करने का स्पष्ट निषेध किया गया है। जैसा कि दशवैकालिक सूत्र (३।४) में कहा है
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