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६६ आनन्द प्रवचन : भाग ६
निकलवाने के लिए कीर्ति की निशानी के रूप में सम्मान-पत्र, अभिनन्दन पत्र आदि दिये जाते हैं । उसके नाम की तख्ती लगाई जाती है । आमंत्रण पत्रिकाएँ छपती हैं, तब उनके नाम के पूर्व बड़े-बड़े विशेषण - दानवीर, नररत्न धर्ममूर्ति, पुण्यवान आदि लगा देते हैं । पदवियों के पुछल्ले भी उनकी कीर्ति के बदले अपकीर्ति का डंका पीटते हैं ।
कई बार ऐसी दशा देखकर मुझे निराश हो जाना पड़ता है कि क्या सत्कार्यों का इतना दुष्काल पड़ा हुआ है कि कीर्ति के भूखे लोग बिना ही कुछ धर्माचरण या सत्कार्यं किये येन-केन-प्रकारेण कीर्ति लूट लेते हैं । कई बार संस्था के लिए तस्कर - व्यापारियों या ब्लेक मार्केटियरों से धन निकलवाने हेतु उनकी प्रशंसा करते हैं, उन्हें उच्च पद या उच्च आसन देते हैं और बदले में वे तथाकथित कीर्तिलिप्सु धनिक भी उन पण्डितों या विद्वानों की प्रशंसा करते हैं । उस समय उस कवि की उक्ति बरबस याद आ जाती है, जिसमें कहा गया है
उष्ट्राणां विवाहे तु गायन्ति किल गर्दभाः । परस्परं प्रशंसन्ति अहो रूपमहोध्वनिः ॥
ऊँटों के विवाह में गीत गाने वाले गदर्भराज थे । गदर्भराज कह रहे थे"धन्य हो महाराज आपका रूप ! ऐसा रूप तो किसी को भी नहीं मिला ।" इस पर उष्ट्रराज भी कहने लगे - " धन्य है गदर्भराज ! आपकी आवाज को, कितने सुरीले स्वर में आप गीत गाते हैं ।" दो दिनों की झूठी वाहवाही, 'थोथी प्रशंसा और कृत्रिम प्रतिष्ठा एवं शोभा के लिए लोग विवाहों कितना आडम्बर, प्रदर्शन एवं चकाचौंध करते हैं । क्षणिक कीर्ति के लिए व्यक्ति कितने उखाड़ - पछाड़ करता है । अधिकांश धन तो तथाकथित क्षणिक कीर्तिलिप्सुओं का, दमक में, पार्टी देने में, तथा पत्रिका आदि छपवाने में व्यर्थ वही धन चरित्र-निर्माण में, परोपकार में, सत्कार्यों में या उसकी कीर्ति का कलश चढ़ जाता ।
बैंड बाजे एवं
हो
विद्य ुत की चमकजाता है, परन्तु यदि शील- पालन में लगता तो
मैंने देखा है कि बड़े-बड़े मन्दिरों तथा मेरठ जिले की ओर धर्मस्थानकों पर कलश चढ़ाये जाते हैं । वे कलश प्रायः मन्दिर या स्थानक की शोभा या कीर्ति में वृद्धि करने तथा जनता को दान, धर्माराधना या सत्कार्य करने की प्रेरणा देने के हेतु चढ़ाए जाते हैं । परन्तु कलश कब चढ़ता है ? वह चढ़ता है— मन्दिर या स्थानक के निर्माण कार्य की पूर्णाहुति होने के बाद । इसी प्रकार कीर्ति भी मानवजीवन रूपी मन्दिर के निर्माण होने के बाद कलश के रूप में चढ़ती है । जीवन - मन्दिर का निर्माण तो किया ही नहीं, उसकी नींव तो डाली ही नहीं, उसके नींव की ईंट के रूप में दान, पुण्य, परोपकार, सेवा आदि सत्कार्य तो किये ही नहीं और लगे हैं कीर्ति कलश चढ़ाने ! यह तो वैसी ही बात हुई कि नीचे तो लंगोटी भी नहीं है, सिर पर बड़ी पगड़ी बांधी जा रही है ! कितनी हास्यास्पद बात है यह !
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