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आनन्द प्रवचन : भाग ६
कीतिः पुण्यात् पुण्यलोके नैव पापं प्रयच्छति ।
कीर्त्यमान मनुष्यस्य, तस्मात् पुण्य समाचरेत ॥ जिसकी कीर्ति होती है, उस पुण्यवान् व्यक्ति के पुण्य से पुण्यलोक में कीर्ति प्राप्त होती है, जो पाप को फटकने नहीं देती, इसलिए पुण्यकार्यों का आचरण करना चाहिए।
आशा है, आप कीर्ति का लक्षण जान गये होंगे। इसी कीर्ति से ठीक विपरीत अकीर्ति या अपकीति है । अपकीर्ति, बदनामी, निन्दा, अप्रतिष्ठा, बेइज्जती, आदि सब एक ही थैली के चट्ट-बट्टे हैं। बुरे कार्यों, अनिष्ट आचरणों या अहितकर कार्यों के करने से अकीर्ति या बदनामी फैलती है। किन्तु कीति में मनुष्य प्रसन्न रहता है, उसमें रुचि रखता है वैसे अपकीति में नहीं। सत्कार्यों से कीर्ति स्वतः प्राप्त होती है
यद्यपि जो व्यक्ति सद्गुणी, परोपकारी सुशील एवं सत्कार्यकर्ता होते हैं, वे कीर्ति चाहते नहीं है, बल्कि कीर्ति को पीठ देकर चलते हैं, फिर भी कीर्ति उनके पीछे छाया की तरह दौड़ी आती है जो मनुष्य छाया को सामने से पकड़ने जाता है, छाया उसकी पकड़ में नहीं आती। लेकिन जब वह छाया को पीठ देकर चलता है, तब छाया उसके पीछे-पीछे स्वतः चलती है। यही बात कीति के सम्बन्ध में समझिए। ऐसे निःस्पृह, परोपकारी, सुशील एवं सबका भला चाहने वाले व्यक्ति के पीछे न चाहने पर भी कीर्ति कैसे दौड़ी आती है, इसके लिए एक सच्ची घटना सुनिए
अतरोली (अलीगढ़) में बाबा के मुहल्ले में ईश्वरदास नाम के ब्राह्मण रहते थे। वे पण्डिताई का काम छोड़कर पंसारी का काम करने लगे। ईश्वरदास बहुत बूढ़े थे और बहुत मोटे शीशे की ऐनक लगाते थे। वे शहर भर में ईमानदारी एवं सच्चरित्रता के लिए प्रसिद्ध थे। उनकी दूकान पर हरदम ग्राहकों की भीड़ लगी रहती थी। क्या आप अनुमान लगा सकते हैं कि वे ग्राहक किस उम्र से किस उम्र तक के रहे होंगे ? आप ठीक-ठीक नहीं बता सकेंगे।
सुनिये, उनकी दूकान पर चार वर्ष की उम्र से लेकर १२-१३ वर्ष की उम्र तक के बालकों की भीड़ लगी रहती थी। शायद ही कभी कोई बड़ी उम्र का जवान या बूढ़ा उनकी दूकान पर देखने को मिलता था। अगर मिल जाए तो यही समझिए कि जिस घर से वह सौदा लेने आया है उस घर में या तो कोई बच्चा है नहीं, या है तो स्कूल या अपने ननिहाल गया होगा। ऐसा क्यों होता था ? उसका कारण यह था कि उनकी दूकान थोड़ी ऊँचाई पर थी। छोटे बच्चे चढ़ ही नहीं सकते थे। बूढ़े बाबा ईश्वरदास उन्हें हाथ पकड़कर चढ़ाते थे। बूढ़े होते हुए भी वे शरीर से ताकतवर थे। बच्चे उनकी दूकान पर इसलिए जाते थे कि उनका यह नियम था कि वे बच्चों को हर चीज कुछ ज्यादा तौल कर देते थे, इस खयाल से कि यह रास्ते में थोड़ी-बहुत गिरा देगा तो घर पहुँचने तक चीज पूरी नहीं पहुँच पाएगी। फिर
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