________________
आनन्द प्रवचन : भाग ६
संगत तेने शुं करे, जईने कुबुद्धिमाँ धरे कान ॥ ध्र व ॥ मरी कपूर बेऊ भेगां रे रहेताँ, निरंतर करी एकवास । तोय तिखाश ऐनी नटली रे, ऐनी बुद्धिमाँ नांख्यो वराश ।। चंदन भेलो वींटीने रहेतो रे, रात दिवस भोयंग । तोय कंठे थी विष न गयँ रे, एने न आवी शीतलता अंग ॥ दादूर रहेतो तालाबमाँ रे, नित्य कमलनी पास ।
कल-बल करतो काँचमाँ रे, ऐने न आवी कमलनी सुवास ॥
तात्पर्य यह है कि अगर जीवन में स्थिरबुद्धि के योग्य गुण न हों तो केवल संगति से भी प्रायः सुबुद्धि नहीं आ सकती। संकट आ पड़ने से भी बुद्धि परिपक्व नहीं
कई लोग कहते हैं कि संकटों या मुसीबतों को सहते-सहते मनुष्य की बुद्धि परिपक्व एवं स्थिर हो जाती है। यह भी सर्वा शतः सत्य नहीं है। संकटों को धैर्यपूर्वक, किन्हीं (निमित्तों) को कोसे बिना, रोष, द्वेष, आदि आवेशों से रहित होकर सहने से अवश्य ही बुद्धि स्थिर हो जाती है मगर हाय-हाय करते हुए, गाली और शाप देते हुए सहने से तो रही-सही बुद्धि भी पलायित हो जाती है। पश्चात्ताप करने पर बुद्धि आई, उससे तो कोई काम सुधरता नहीं; पहले ही सद्बुद्धि आ जाती तो कितना अच्छा होता ? चाणक्यनीति में इस सम्बन्ध में सुन्दर प्रकाश डाला है
उत्पन्न पश्चात्तापस्य बुद्धिर्भवति यादृशी। तादृशी यदि पूर्वे स्यात् कस्य न स्यान्महोदयः ? धर्माख्याने श्मशाने च रोगियां या मतिर्भवेत् ।
सा सर्वदेवावतिष्ठेच्चेत् को न मुच्यते बन्धनात् ॥ पश्चात्ताप के समय जैसी सद्बुद्धि होती है, वह यदि पहले ही प्राप्त हो जाए तो किसका महान् अभ्युदय न हो जाता ! धर्मकथाश्रवण के समय, मरघट में एवं रुग्णावस्था में जो विरक्तियुक्त बुद्धि होती है, अगर वह सदा के लिए स्थिर हो जाए तो कौन ऐसा है, जो बन्धनों से मुक्त न हो। केवल नम्रता से भी बुद्धि नहीं
___ इसी प्रकार कोरे विनय से, नम्रता दिखाने से या किसी के सामने हाथ जोड़ने या पैरों में पड़ने मात्र से भी ऐसी स्थिरबुद्धि प्राप्त नहीं होती। ऐसी विनय किस काम की, जो इधर तो नमन करे और उधर उसका गला काटने को तैयार हो जाय । एक पुत्र पिता के सामने हाथ जोड़ता है, परन्तु पिता की आज्ञा को ठुकरा देता है, क्या वह सच्चा विनीत सुपुत्र कहला सकता है ? कदापि नहीं। इसी प्रकार जो व्यक्ति सामने तो बहुत ही नम्रता, भक्ति दिखलाता है किन्तु पीठ फेरते ही उसका बुरा करने को तैयार हो जाता है वह ठग, धोखेबाज, चापलूस या स्वार्थी है । सुविनीत १ “हिरिमं पडिसलीणे, सुविणीए"
- उत्तराध्ययन ११/१३
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org