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सुख का मूल : सन्तोष
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असन्तोष का कोई न कोई कारण निकाल ही लिया करते हैं । असंतोष एक प्रकार का दर्द है, जिससे मनुष्य को उसी प्रकार की बेचैनी हुआ करती है जैसे आँख, पेट, सिर, कान या दाढ़ के दर्द होने पर होती है।
__असन्तुष्ट व्यक्ति किसी कार्य को पूरा करते ही सफलता पाने या जो कुछ चाहते हैं, उसे तुरन्त ही प्राप्त हो जाने की कल्पना किया करते हैं। उनमें धैर्य नाम मात्र को नहीं होता । यदि जरा-सी भी देर हो जाती है तो वे अपना मानसिक सन्तुलन खो बैठते हैं और सफलता के लिए अत्यन्त आवश्यक गुण-धैर्य एवं मानसिक स्थिरता को खाकर असन्तोषरूपी भारी विपत्ति को अपने सिर पर ओढ़ लेते हैं। जिसका भार लेकर उन्नति की दिशा में कोई भी व्यक्ति देर तक नहीं चल सकता।
उन्नति की आकांक्षा और बात है, असन्तोष की वृत्ति के कारण धनादि पाने की अनुचित महत्त्वाकांक्षाएँ बिलकुल दूसरी बात है । उन्नतिशील व्यक्ति आशा, उत्साह, धैर्य और साहस को साथ लेकर प्रसन्न मुखमुद्रा और स्थिर चित्त के साथ आगे बढ़ता है। जैसे गहरे पानी में उतरते समय हाथी अपना प्रत्येक कदम संभाल-संभालकर रखता हुआ आगे बढ़ता है, वैसे ही उन्नतिशील व्यक्ति अपना हर कदम फूंक-फूंककर रखता हुआ आगे बढ़ता है। उन्नतिशील व्यक्ति स्वस्थचित्त, अनुद्विग्न एवं स्थितप्रज्ञ होने के कारण आने वाली कठिनाइयों विघ्न-बाधाओं और प्रतिकूल परिस्थितियों का सही कारण और उनका यथार्थ निवारण ढूंढकर, अपनी सही सूझ-बूझ से उनका निराकरण करने और संकटों को साहस एवं दृढ़ता के साथ पार करने में समर्थ होता है । वह उतावली, अधीरता और उद्विग्नता को नहीं अपनाता, जब कि असन्तोषी व्यक्ति उतावला, जल्दबाज, उद्विग्न एवं अधीर हो बैठता है, उसमें संकटों के सामने साहसपूर्वक टिके रहने की दृढ़ता नहीं होती।
असन्तुष्ट व्यक्ति का मानस असन्तोष एक मानसिक ज्वर है। जिस प्रकार बुखार होने पर रोगी शारीरिक और मानसिक दोनों तरह है अशक्त हो जाता है, खड़े होते ही उसके पैर लड़खड़ाने लगते हैं, कुछ ही देर पढ़ने, बोलने या सोचने से उसका सिर दर्द करने लगता है, उसे चक्कर आने लगता है, उसी प्रकार असन्तोष ज्वर से पीड़ित मानसिक रोगी की भी हालत हो जाती है, वह जरा-सा संकट आते ही अशक्त होकर बैठ जाता है, किसी भी समस्या की गहराई में जाकर उसका हल करने की बात पर अधिक देर तक नहीं सोच सकता । उसे दूसरों की तरक्की को देख-देखकर कुढ़न होती है, पर कर-धर कुछ नहीं सकता । हर घड़ी कुढ़न और जलन उसे घेरे रहती हैं । क्षुब्ध और उत्तेजित मन से वह ऊटपटांग बातें ही सोच सकता है। दूसरों पर दोषारोपण करके अपने दिमाग में निहित तेजोष और क्रोध को ही वह बढ़ा सकता है। अपनी मनःस्थिति जिन्होंने ऐसी असन्तुलित बना ली है, वे उद्वेग की अशान्त लहरों के ही थपेड़े खाते रहते हैं। उनकी अधिकांश शक्तियाँ कुढ़न, जलन, छिद्रान्वेषण, दोषारोपण, प्रतिशोध, ईर्ष्या, निन्दा आदि में ही व्यय होती रहती है। प्रगति पथ पर बढ़ने के लिए धैर्य,
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