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आनन्द प्रवचन : भाग ६
आप को खाली करने--अपना कमाया हुआ लटाने का पथ है। भौतिक दृष्टि से से उसमें हानियाँ ही हानियाँ हैं, किन्तु इन सब परिस्थितियों में एक गुण ऐसा है जो इन समस्त विषमताओं, त्याग और तपस्याओं को आध्यात्मिक विकास में बदल देता है, वह है-सन्तोष । सन्तोष आत्मा की सन्निकटता प्राप्त करने का अमोघ उपाय है। अतः सन्तोष आवश्यकताओं की तात्कालिक पूर्ति या क्षणिक तृप्ति ही नहीं, अपितु एक विशाल भावना है, जो कुछ न होने पर भी आत्मा के अनन्त भण्डार के स्वामित्व का आनन्द अनुभव कराती है । सन्तोष वह प्रकाश है, जो आत्मा के पथ को आलोकित करता है और आत्मा जैसी विशाल एवं व्यापक सत्ता की महत्ता के द्वार खोल देता है। फिर मनुष्य को सांसारिक एवं तात्कालिक भोग नहीं भाते । फिर सद्गुणों या आत्मगुणों के अधिकाधिक विकास का लक्ष्य रह जाता है, जिसमें मनुष्य को असीम तृप्ति का अनुभव और आनन्द मिलता है । जहाँ सन्तोष आ जाता है, वहाँ बाह्य दृष्टि से अभाव दिखाई देने पर भी अन्तरात्मा में किसी भी सुख के अभाव का अनुभव नहीं होता । शान्ति-सुख और स्वानुभूति ही नहीं; स्वास्थ्य, साधनों का विकास और शक्ति का आधार भी सन्तोष ही है। जहाँ सन्तोष है, वहाँ सब कुछ है, सभी सुख हैं।
इसीलिए गौतम कुलक में कहा गया है—'सुहमाह तुट्ठि' ।
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