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सुख का मूल : सन्तोष
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अतः संतोष से तीनों विकारों का शमन करके आत्मा को अन्तर्मुखी बनाने पर ही आनन्द और आत्मिक विकास हो सकेगा। बहिर्मुखी परिस्थितियों से बचकर अन्तर्मुखी जीवन का लक्ष्य और आनन्द प्राप्त करने का एक ही तरीका है—संतोष ।
___ मनुष्य शरीर केवल काम, क्रोध, लोभ, मोह में पड़कर, विषयवासनाओं तथा धन की तृष्णाओं में फंसकर खो देने के लिए नहीं मिला है। मानव शरीर बहुत बड़े उद्देश्य की प्राप्ति के लिए मिला है। जो लोग बाह्य जीवन की सफलता और समृद्धि को ही जीवन का लक्ष्य मानकर चलते हैं वे वास्तविक लक्ष्य से भटककर पुनः मानसिक क्लेश के भागी बनते हैं। जो व्यक्ति आध्यात्मिक जीवन का विकास करना चाहते हैं, वे अल्पतम साधनों और परिमित आवश्यकताओं में ही स्वेच्छा से सन्तोष धारण करके आगे बढ़ते हैं। उस स्थिति में वे अन्त तक टिके रहकर अपने कल्याण की साधना करते हैं। इस दौरान जो भी भूख, प्यास, सर्दी-गर्मी आदि के कष्ट आते हैं, उन्हें सन्तोषपूर्वक सहते हैं। उनका चिन्तन यह होता है कि भोजन शरीर धारण करने के लिए है वह जैसा भी रुखा-सूखा मिल जाए उसी में सन्तोष करना चाहिए। अन्य जीवन यापन के साधन जो भी समय पर मिल जाएँ उन्हीं में सन्तुष्ट रहने से अपार आत्मसुख मिल सकता है । इसीलिए 'तत्त्वामृत' में कहा है
यः सन्तोषोदकं पीतं, निर्ममत्वेन वासितम् ।
त्यक्तं तैर्मानसं दुःखं दुर्जनेनेव सौहृदम ॥ "जिन्होंने ममतारहित होकर सन्तोष जल का पान कर लिया है उन्होंने मानसिक दुःख को उसी तरह छोड़ दिया है, जिस तरह दुर्जन मित्रता को छोड़ देता है।"
सन्तोष : समस्त सद्गुणों का मूलाधार संसार के अधिकांश महापुरुष अभावों और कठिनाइयों के बीच सन्तुष्ट रहकर ऊँचे उठे हैं । यदि वे अभावों और साधनहीनता का रोना रोते रहते तो कभी अध्यात्मसाधना में आगे न बढ़े होते । बड़े-बड़े श्रावकों ने परिग्रह की सीमा निर्धारित करके सन्तोषपूर्वक अपना जीवन अध्यात्मसाधना में लगाया है। पूनिया श्रावक क्या करोड़ों की सम्पत्ति उपार्जित करके उसका उपभोग नहीं कर सकता था ? क्या वह आवश्यकताएँ नहीं बढ़ा सकता था ? परन्तु उसने अपने जीवन में आध्यात्मिक उन्नति के लिए इन पदार्थों को गौण माना। रांका-बांका भक्तों ने भी संतोषव्रत को आजीवन निभाया।
संतोष संसार की समस्त आत्माओं के साथ आत्मीयता एवं मित्रता स्थापित करने का परम साधन है। परोपकार, सेवा और दया आदि सत्कार्यों के करने में अपने समय, श्रम और धन का व्यय करना पड़ता है। कई बार तो कटुता, उपहास और अपमान के क्षण भी केवल इसी कारण आते हैं। शुभ कार्य करते हुए भी लोगों के ईर्ष्या और कोप का भाजन बनना पड़ता है। तात्पर्य यह है कि परमार्थपथ अपने
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