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सुख का मूल : सन्तोष यथालाभ सन्तोषपूर्वक मस्ती से रहते हैं, वे नित्य नवीनता का दर्शन करते हुए आनन्द प्राप्त करते हैं। उनकी इस मस्ती के मूल में सन्तोष की वृत्ति काम करती है । मनुष्य भी अगर अपने जीवन की थोड़ी-सी आवश्यकताओं की पूर्ति सन्तोषपूर्वक साधारण प्रयास से कर ले तो उसे लम्बी-चौड़ी दौड़-धूप की आवश्यकता नहीं होती । यदि मनुष्य उतने से सन्तोष कर ले तो उसके जीवन में नई आत्मशक्ति, ज्ञान और नवीनता के आनन्द की प्राप्ति हो सकती है । इसके लिए उसे कहीं बाहर भटकने की, किसी से सुख माँगने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी तो - " सबसे अधिक प्राप्ति उसी को होती है, जो सन्तुष्ट होता है ।"
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शेक्सपियर के शब्दों में कहूँ
परन्तु अल्पसाधन वाले व्यक्तियों की दृष्टि ऊपर वालों की ओर होने से वे असन्तोषी हो जाते हैं । यदि वे अपनी दृष्टि उन लोगों की ओर मोड़ लें जो उनसे भी कठिन स्थिति में रह रहे हैं, जिनके पास उतना कुछ भी नहीं है, जितना उनके पास है तो निश्चय ही उन्हें अपनी वर्तमान स्थिति में सन्तोष होगा । आप ऐसे हजारों व्यक्तियों को प्रतिदिन अपने चारों ओर देखते होंगे, जिनके पास रहने की एक छोटीसी झोंपड़ी है, या वह भी नहीं है, वे फुटपाथ पर सोकर सर्दी, गर्मी और वर्षा के दिन काटते हैं, सवारी के नाम पर वे १०-१२ मील पैदल चलकर आते-जाते हैं और जीविका के नाम पर बारह - बारह घण्टे पसीना बहाते हैं । ऐसे भी लोग हैं, जो दिन में दोनों समय रोटी भी नहीं पाते, जिनको आप से कहीं कम सुविधाएँ हैं, फिर भी वे हर समय, हर हाल में मस्त, सन्तुष्ट, प्रसन्न और सुखी रहा करते हैं । वे असन्तोषी बनकर न तो अभाव महसूस करते हैं और न ही अपने को दुःखी या अभागे मानते हैं । वे ईमानदारी से परिश्रम करते, यथालाभ सन्तोष करते और प्रसन्नतापूर्वक जीवन यापन करते हैं ।
उन्हें देखकर आपको अपने अपेक्षाकृत अधिक साधनों के होते हुए भी सन्तोष की अनुभूति न हो, इसका कोई कारण नहीं | आप कई ऐसे व्यक्तियों को देखेंगे, जो अन्धे, काने, लूले लंगड़े एवं अपाहिज होते हुए भी अपनी वर्तमान स्थिति में मस्ती, प्रसन्नता और सन्तोष का जीवन बिता रहे हैं, उनकी अपेक्षा आप तो विशेष भाग्य - वान हैं कि आपको समस्त इन्द्रियाँ, अंगोपांग पूर्ण एवं सक्षम मिले हैं । ऐसी स्थि में भी आप असन्तुष्ट रहें, अपने प्राप्त साधनों में सन्तुष्ट होकर जीवन न बिताएँ तो समझना चाहिए, आप पर दुर्भाग्य छाया हुआ है । चाणक्यनीति में स्पष्ट कहा है
सन्तोषामृततृप्तानां यत्सुखं शान्तचेतसाम् । कुतस्तद् धनलुब्धानामितश्चेतश्च धावताम् ॥
" सन्तोषरूप अमृत से तृप्त शान्तहृदय पुरुषों के पास जो सुख प्राप्त होता है वह इधर-उधर भागदौड़ एवं उखाड़ पछाड़ करने वाले धनलोलुपों को कहाँ नसीब हो सकता है ?"
अत: सुख सन्तोष में ही है, और सन्तोष मनुष्य के अपने उज्ज्वल दृष्टिकोण पर निर्भर हैं। यदि आपका दृष्टिकोण परिमार्जित और समीचीन है तो कोई कारण
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