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सुख का मूल : सन्तोष धर्मप्रेमी बन्धुओ !
गौतमकुलक के २१ जीवनसूत्रों पर अब तक आपके सामने विवेचन किया जा चुका है। आज मैं २२वें जीवनसूत्र पर आपके सामने महत्त्वपूर्ण चर्चा करूंगा। २२वाँ जीवनसूत्र है-'सुहमाह तुट्ठि' अर्थात्-'तुष्टि (संतोष) को ही सुख कहा है।' तात्पर्य यह है कि सन्तोषी व्यक्तियों का जीवन ही सुखी होता है।।
सुखीजीवन की परख कैसे ? यदि आपको किसी सुखीजीवन की पहिचान करनी हो तो उसे कैसे पहचानेंगे ? अधिकतर लोगों की धारणा यह होती है कि यदि किसी के पास पर्याप्त धन हो, कार हो, कोठी और बंगला हो, अनेक नौकर-चाकर हों, पर्याप्त सुख-सामग्री हो, सब प्रकार की सुविधाएँ हों तो वे सुखी हैं। ऐसे लोग जब भी किसी धनवान या सम्पन्न अथवा सत्ताधीश को देखते हैं तो चट् से कह दिया करते हैं—'यह आदमी बड़ा सुखी है । इसके यहाँ किस बात की कमी है ? सब प्रकार की मौज है।'
बहुत-से लोग सुख का हेतु सन्तान को भी मानते हैं। वह न हो तो उनका सब सुख सूना है। परन्तु कई लोगों के अनेक पुत्र होते हुए भी सब के सब अविनीत, अल्हड़, अविवेकी, उद्दण्ड और उड़ाऊ निकलते हैं तो उनका सारा सुख कपूर की तरह उड़ जाता है । जिसमें उन्होंने सुख की कल्पना कर रखी थी, वही चीज उनके दुःख का कारण बनी।
जिस स्त्री को मनुष्य सुख का कारण समझता है, उसके मोह में मूढ़ होकर वह वासनाओं से घिर जाता है, अपने जीवन में कुछ भी धर्मसाधना नहीं कर पाता। अनेक स्त्रियाँ हों, फिर तो कहना ही क्या है ? मनुष्य धर्माचरण न कर पाने या कामवासना में लिप्त रहकर अकाल में इस लोक से विदा हो जाने के कारण वास्तव में सुखी नहीं होता। बल्कि उसने जो दुःख की जड़ें सींची हैं, उनका फल आगे और कभी-कभी यहाँ भी तत्काल मिल जाता है। बाहर से धनाढ्य और साधनसम्पन्न दिखाई देने वाला मानव वास्तव में सुखी है, यह नहीं कहा जा सकता । जब उसके जीवन की गहराई में उतरते हैं तो मालूम होता है—अनेक चिन्ताओं से आक्रान्त होने के कारण वह एक साधारण व्यक्ति से कई गुना अधिक दुःखी है।
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