Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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नायाधम्मकहाओ
प्रथम अध्ययन : सूत्र ३३-३८ छिड़काव कर, बुहार-झाड़कर, साफ-सुथरे किए गये तथा गोबर से लिपे गये, विकीर्ण पंचरंगे सरस सुरभिमय पुष्प-पुञ्ज के उपचार से कलित, काली अगर, प्रवर कुन्दुरू और लोबान की जलती हुई धूप की सुरभिमय महक से उठने वाली गंध से अभिराम, प्रवर सुरभि वाले गंध-चूर्णों से सुगंधित, गंधवर्तिका के समान राजगृह नगर का अवलोकन करती हुई, नागरिकों द्वारा अभिनन्दित होती हुई, गुच्छ, लता, वृक्ष, गुल्म, वल्ली--इनके गुच्छों से आच्छादित सुरम्य वैभार-गिरि की मेखला और तलहटी में चारों ओर घूमती-घूमती अपना दोहद पूरा करती हैं।
मैं भी इसी प्रकार मेघ-घटाओं के उमड़ने पर यावत् सुरम्य तलहटी में घूमती हुई अपना दोहद पूरा करूं।
धारिणीए चिंता-पदं ३४. तए णं सा धारिणी देवी तंसि दोहलंसि अविणिज्जमाणंसि
असंपत्तदोहला असंपुण्णदोहला असम्माणियदोहला सुक्का भुक्खा निम्मंसा ओलुग्गा ओलुग्ग-सरीरा पमइलदुब्बला किलंता ओमंथियवयण-नयणकमला पंडुइयमुही करयल-मलिय व्व चंपगमाला नित्तेया दीणविवण्णवयणा जहोचिय-पुप्फ-गंधमल्लालंकार-हारं अणभिलसमाणी किड्डारमणकिरियं परिहावेमाणी दीणा दुम्मणा निराणंदा भूमिगयदिट्ठीया ओहयमणसंकप्पा करतलपल्हत्थमुही अट्टज्झाणोवगया झियाइ।।
धारिणी की चिन्ता-पद ३४. धारिणी देवी का दोहद पूरा न होने के कारण, वह (दोहद) असम्प्राप्त,
असम्पूर्ण और असम्मानित रहा। अतएव वह सूखी, भूखी, कृश, रुग्ण शरीर वाली, मलिन, दुर्बल और क्लान्त हो गई। उसका मुख और नयन-कमल नीचे की ओर झुक गए। मुंह पीला हो गया। वह हाथ से मली हुई चम्पक-माला की भांति निस्तेज, दीन और कान्ति शून्य मुंह वाली, यथोचित पुष्प, गन्ध-चूर्ण, माला, गहने और हार को न चाहने वाली, क्रीड़ा और रतिक्रिया को छोड़ती हुई, दीन, दुर्मन, आनन्द-रहित, भूमि की ओर झांकती हुई (भूमि पर दृष्टि गड़ाए) उपहत मन:संकल्प हो, हथेली पर मुंह टिकाए, आर्तध्यान में डूबी हुई, चिन्ता मग्न हो गई।
पडिचारियाणं चिंताकारणपुच्छा-पदं
परिचारिकाओं द्वारा चिन्ता का कारण-पृच्छा-पद ३५. तए णं तीसे धारिणीए देवीए अंगपडिचारियाओ अभिंतरियाओ ३५. उस धारिणी देवी को अंगपरिचारिकाओं और अन्तरंग दास- चेटियों दासचेडियाओ धारिणिं देविं ओलुग्गं झियायमाणिं पासंति, पासित्ता ने धारिणी देवी को रुग्ण और चिन्तामग्न देखा। देखकर इस प्रकार एवं वयासी--किण्णं तुमे देवाणुप्पिए! ओलुग्गा ओलुग्गसरीरा बोली--देवानुप्रिये! तुम रुग्ण, रुग्णशरीर वाली यावत् चिन्तामान क्यों जाव झियायसि?
हो रही हों?
३६. तए णं सा धारिणी देवी ताहिं अंगपडिचारियाहिं अभिंतरियाहिं दासचेडियाहिं य एवं वुत्ता समाणी ताओ दासचेडियाओ नो आढाइ, नो परियाणइ, अणाढायमाणी अपरियाणमाणी तुसिणीया संचिट्ठइ॥
३६. उन अंगपरिचारिकाओं और अन्तरंग दास-चेटियों द्वारा ऐसा कहने
पर धारिणी देवी ने न उन्हें आदर दिया और न उनकी बात पर ध्यान दिया। उनका आदर न करती हुई और उनकी बात पर ध्यान न देती हुई वह मौन रही।
३७. तए णं ताओ अंगपडिचारियाओ अभिंतरियाओ दासचेडियाओ ३७. अंगपरिचारिकाओं और अन्तरंग दास-चेटियों ने धारिणी देवी को धारिणिं देविं दोच्चं पि तच्चं पि एवं वयासी--किण्णं तुमे दोबारा-तिबारा भी यही कहा--देवानुप्रिये! तुम रुग्ण, रुग्ण शरीर वाली देवाणुप्पिए! ओलुग्गा ओलुग्गसरीरा जाव झियायसि?
यावत् चिन्तामग्न क्यों हो रही हो?
३८. तए णं सा धारिणी देवी ताहिं अंगपडिचारियाहिं अभिंतरियाहिं
दासचेडियाहिं दोच्चं पि तच्चं पि एवं वृत्ता समाणी नो आढाइ नो परियाणइ, अणाढायमाणी अपरियाणमाणी तुसिणीया संचिट्ठइ।।
३८. उन अंगपरिचारिकाओं और अन्तरंग दास-चेटियों द्वारा ये बातें दुहराए तिहराए जाने पर भी धारिणी देवी ने न उनको आदर दिया और न उनकी बात पर ध्यान दिया। वह उनका आदर न करती हुई और उनकी बात पर ध्यान न देती हुई मौन रही।
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