Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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याधम्मकाओ
धारिणीए दोहल - पदं
३२. तए णं सा धारिणी देवी सेणियस्स रण्णो अंतिए एयमहं सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्ठ-चित्तमाणंदिया जाव हरिसवस - विसप्पमाणहियया तं सुमिणं सम्मं पडिच्छति, जेणेव सए वासघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता व्हाया कयबलिकम्मा कय-कोउय-मंगल- पायच्छित्ता विपुलाई भोगभोगाई भुंजमाणी विहरइ ।।
३३. तए णं तीसे धारिणीए देवीए दोसु मासेसु वीइक्कंतेसु तइए मासे वट्टमाणे तस्स गब्भस्स दोहलकालसमयंसि अयमेयारूवे अकालमेहेसु दोहले पाउब्भवित्था-
घण्णाओ णं ताओ अम्मयाओ, संपुण्णाओ णं ताओ अम्मयाओ, कयत्याओ णं ताओ अम्मयाओ, कयपुण्णाओ णं ताओ अम्मयाओ, कयलक्खणाओ णं ताओ अम्मयाओ, कयविहवाओ णं ताओ अम्मयाओ, सुलद्धे णं तासिं माणुस्सए जम्मजीवियफले, जाओ गं मेसु अब्भुग्गएसु अब्भुज्जएस अब्भुण्णएसु अब्भुट्ठिएसु सगज्जिएसु सविज्जुए सफुसिएस सथणिएसु धंतधोय- रुप्पपट्ट-अंक-संखचंद - कुंद-सालिपिट्ठरासिसमप्पभेसु चिकुर-हरियाल-भेय-चंपगसण- कोरेंट-सरिसव-पउमरयसमप्पभेसु लक्खारस- सरसरत्त किंसुय- जासुमण-रत्तबंधुजीवग-जातिहिंगुलय - सरस - कुंकुम - उरब्भससरुहिर - इंदगोवग- समप्पभेसु बरहिण - नील-गुलियसुगचासपिच्छ-भिंगपत्त- सासग - नीलुप्पलनियर - नवसिरीसकुसुमनवसद्दलसमप्पभेसु जच्चजण भिंगभेय-रिट्ठग-भमरावलिगवलगुलिय- कज्जलसमप्पभेसु फुरंत - विज्जुय-सगज्जिएसु वायवसविपुलगगण-चवलपरिसक्किरेसु, निम्मल - वरवारिधारा-पयलियपयंडमाख्यसमाहय-समोत्थरंत उवरि उवरि तुरियवासं पवासिएसु, धारा - पहकर निवाय - निव्वाविय मेइणितले हरियगगणकंचुए पल्लविय पायव - गणेसु वल्लिवियाणेसु पसरिएसु उन्न सोभग्गमुवगएसु वैभारगिरिप्पवाय-तड- कडगविमुक्केसु उज्झरेसु, तुरियपहाविय - पल्लोट्टफेणाउलं सकलुतं जलं वहतीसु गिरिनदीसु सज्जज्जुण-नीव-कुडय-कंदल - सिलिंध- कलिएसु उववणेसु ।
मेहरसिय-हट्ठतुट्ठचिट्ठिय-हरिसवसपमुक्ककंठ केकारवं मुयंतेसु बरहिणेसु उउवस-मयजणिय-तरुणसहयरि-पणच्चिएसु नवसुरभिसिलिंध- कुडय - कंदल - कलंब - गंधद्धणिं मुयंतेसु उववणेसु ।
परहु-रुप-रिभिय-संकुलेसु उद्दाइंत-रत्तइंदगोवय-थोवयकारुण्णविनविएसु ओणयतणमंडिएसु ददुरपयंपिएसु संपिंडिय - दरिय- भमर - महुयरिपहकर परिलिंत मत्त छप्पयकुसुमासवलोल-महुर-गुंजंतदेसभाएसु उववणेसु ।
परिसामिय- चंद- सूर-गहगण-पणट्ठनक्खत्त - तारगपहे इंदा उह-बद्ध - चिंधपट्टम्मि अंबरतले उड्डीणबलागपंति-सोभतमेहवदे कारंडग-चक्कवाय-कलहंस - उस्सुयकरे संपत्ते पाउसम्म काले
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प्रथम अध्ययन सूत्र ३२-३३
धारिणी का दोहद-पद
३२. वह धारिणी देवी राजा श्रेणिक के पास इस अर्थ को सुनकर, अवधारण कर हृष्ट तुष्ट चित्त वाली, आनन्दित यावत् हर्ष से विकस्वर हृदयवाली हो गई। उस स्वप्न को सम्यक् स्वीकार किया। जहां अपना निवास था, वहां आयी । आकर उसने स्नान, बलिकर्म और कौतुक मंगलरूप प्रायश्चित्त किया और विपुल भोगाई भोगों का उपभोग करती विहार करने लगी।
३३. धारिणी देवी को गर्भ धारण किये जब दो महीने व्यतीत हो गए और तीसरा महीना चल रहा था, तब दोहद-काल के समय उसके मन में अकाल मेघ सम्बन्धी दोहद उत्पन्न हुआ-
"धन्य हैं वे माताएं, पुण्यवती हैं वे माताएं कृतार्थ हैं वे माताएं, कृतपुण्य हैं वे माताएं, कृतलक्षण हैं वे माताएं, वैभवशालिनी हैं वे माताएं, उन्हीं माताओं ने मनुष्य के जन्म और जीवन का फल पाया है, जब आकाश में मेघ उमड़ रहा हो, विस्तार पा रहा हो, झुका हुआ हो, और बरसने को हो। जिसमें गर्जन हो रहा हो, बिजलियां कौंध रहीं हों, फुंहारें गिर रही हों और स्तनित शब्द हो रहा हो। जो बादल अग्नि में तपाये हुए रजत-पट, अंक-रत्न, शंख, चन्द्रमा, कुन्दपुष्प तथा चावलों के आटे की राशि के समान- श्वेत आभा वाले हों, चिकुर, हरिताल-खण्ड, चम्पक, सन-पुष्प, कटसरैया और सरसों के फूल तथा पद्मरज के समान पीत प्रभा वाले हों, लाक्षारस, सरस रक्तपलाश, जवाकुसुम, लाल दुपहरिया, जात्य- हिंगुल आर्द्र कुंकुम, उरभ्र तथा खरगोश के रक्त और वीर-वधूटियों के समान रक्तिम प्रभा वाले हों, मयूर, , नीलमणि, गुलिका, तोते और चाष के पंख, भौंरे की पांख, रांगा, नीलोत्पल-समूह, नए शिरीष कुसुम और नई दूब के समान नील प्रभावाले हों, जात्य अंजन - रत्न, कोयले के टुकड़े, अरिष्टरत्न, भ्रमरावलि, भैंसे के सींग और काजल के समान श्याम प्रभा वाले हों। जिनमें बिजलियां चमक रहीं हों, जो गाज रहे हों, जो वात- प्रेरित हो, चपलता से विपुल गगन में विहरण कर रहे हों, जो निर्मल प्रवर जलधाराओं को छोड़ते हुए प्रचण्ड पवन-वेग से धरातल को आच्छादित कर विरल तेजगति से बरस रहे हों।
मेदिनीतल वर्षा के अविरल धारा- निपात से शीतल हो गया हो, जो हरीतिमा की केंचुली पहने हुए हो, जिनमें वृक्ष-समूह पल्लवित हो, बेलों का जाल फैला (बिछा हुआ हो, उन्नत भू-भाग सौभाग्य को प्राप्त हो रहा हो, वैभारगिरी के प्रपात, तरि और मेखलाओं से निर्झर गिर रहे हों, पहाड़ी नदियां तेज दौड़ और घुमाव के कारण फेनिल और मटमैला पानी प्रवाहित कर रही हों, जो सलई, अर्जुन, कदम्ब, कुटज, कन्दल और कुकुरमुत्तों से आकलित हों-- ऐसे उपवनों में ।
जहां मेघ की गर्जना से हृष्ट-तुष्ट चेष्टा वाले मोर उल्लासवश मुक्त कण्ठ से केका-रव कर रहे हों, वर्षा ऋतु जनित उन्मत्तता के कारण तरुण सहचरियों (मयूरियों) के साथ नृत्य कर रहे हों, जहां
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