Book Title: Acharang Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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अध्ययन १ उद्देशक २
२७ +000000.or.krrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrr. करण तथा विवाह आदि के उपलक्ष्य में होने वाला जीमणवार, पच्छासंखडिं- पश्चात् संखडी (मरण के बाद में किये जाने वाले भोज)।
भावार्थ - संखडी (जीमणवार) के संकल्प से जाने वाले साधु साध्वी को आधाकर्मिक औदेशिक, मिश्रजात, खरीदा हुआ (क्रीतकृत) उधार लिया हुआ, कमजोर से छीनकर लिया हुआ, दूसरे के स्वामित्व का पदार्थ उसकी अनुमति बिना लिया हुआ या सम्मुख लाकर दिया हुआ ऐसा आहार आदि सेवन करने का प्रसङ्ग बनेगा तथा कोई भावुक गृहस्थ साधु के संखडी में पधारने की संभावना से छोटे द्वार को बड़ा, बडे द्वार को छोटा, सम शय्या को. विषम और विषम शय्या को सम करेगा। वायु युक्त स्थान को निर्वात स्थान और निर्वात को अधिक वायु युक्त (हवादार) करेगा। उपाश्रय के भीतर या बाहर घास आदि हरियाली को छेदन करके विदारण करके उसे ठीक करेगा, संस्तारक-पाट आदि बिछायेगा इस तरह अनेक दोष संभव है। इसलिए संयमवान् निर्ग्रन्थ पूर्व संखडी तथा पश्चात् संखडी में आहार लाभ की इच्छा से जाने का संकल्प न करे।
- विवेचन - संखडी में जाने से आधाकर्म आदि दोष लगने की तथा और भी कई दोष लगने की संभावना रहती है जैसे किसी श्रद्धालु गृहस्थ को यह पता लग जाय कि साधु इस
ओर आहार के लिए आ रहा है तो वह उसके लिए शय्या स्थान आदि को ठीक करने का प्रयत्न करेगा, घास फूस को काटेगा, पानी आदि से धोएगा, दरवाजे को छोटा बड़ा बनाएगा आदि। अतः संखडी के स्थान में साधु को आहार के लिए जाने का निषेध किया गया है।
यहा संखडी के दो भेद किये हैं - १. पूर्व संखडी - जन्म नामकरण विवाह आदि के समय या इससे पूर्व किये जाने वाले भोज और २. पश्चात् संखडी - व्यक्ति की मृत्यु के बाद किया जाने वाला भोज।
एयं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं जं सव्वढेहिं समिए सहिए सया जए त्ति बेमि॥१३॥
॥बीओ उद्देसो समत्तो॥ भावार्थ - यह साधु और साध्वी का आचार है वह सभी अर्थों में समित और ज्ञान दर्शन चारित्र से युक्त होकर संयम में सदा यत्न करे। ऐसा मैं कहता हूँ।
॥प्रथम अध्ययन का द्वितीय उद्देशक समाप्त॥
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