Book Title: Acharang Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 310
________________ अध्ययन १५ २९७ ......................................................... आगए तओ णं पभिइ तं कुलं विपुलेणं हिरण्णेणं सुवण्णेणं धणेणं धण्णेणं माणिक्केणं मोत्तिएणं संखसिलप्पवालेणं अईव अईव परिवड्डइ। - तओ णं समणस्स भगवओ महावीरस्स अम्मापियरो एयमढे जाणित्ता णिव्वत्तदसाहसि वोक्कंतंसि सूइभूयंसि विपुलं असणपाणखाइमसाइमं उवक्खडाविंति उवक्खडावित्ता मित्तणाइसयणसंबंधिवग्गं उवणिमेति उवणिमंतित्ता बहवे समणमाहणकिवणवणिमगाहिं भिच्छुडगपंडरगाईण विच्छड्डेति विग्गोवेंति विस्साणेति दायारेसु णं दाणं पजभाइंति विच्छड्डित्ता विग्गोवित्ता विस्साणित्ता दायारेसु णं दाणं पजभाइत्ता मित्तणाइसयणसंबंधिवग्गं भुंजावेंति भुंजावित्ता मित्तणाइसयणसंबंधिवग्गेण इमेयारूवं णामधिजं कारवेंति, जओ णं पभिइ इमे कुमारे तिसलाए खत्तियाणीए कुच्छिंसि गब्भे आहूए तओ णं पभिइ इमं कुलं, विउलेणं हिरण्णेणं सुवण्णेणं धणेणं धण्णेणं माणिक्केणं मोत्तिएणं संखसिलप्पवालेणं अईव अईव परिवड्डइ तं होउ णं कुमारे 'वद्धमाणे'॥ कठिन शब्दार्थ - पभिइ - प्रभृति-तब से लेकर, संखसिलप्पवालेणं - शंख शिला और प्रवाल से, णिव्वत्तदसाहंसि - दस दिनों के निवृत होने पर, मित्तणाइसयण संबंधिवग्गंमित्र, ज्ञाति, स्वजन, संबंधि वर्ग को, उवक्खडाविंति - भोजन तैयार करवाते हैं, भिच्छुडग पंडरगाईणं - शरीर पर भस्म आदि लगा कर भिक्षा मांगने वाले, विच्छड्डेति - भोजन कराते हैं, विग्गोवेति - विगोपन करते हैं, विस्साणेति - विशेष रूप से आस्वादन करते हैं, दायारेसु - याचकों में, पजभाइंति - बांटते हैं, आइए- आया है। भावार्थ - जब से श्रमण भगवान् महावीर स्वामी त्रिशला क्षत्रियाणी की कुक्षि में आए तब से उस कुल में प्रचुर मात्रा में चांदी, सोना, धन, धान्य, माणिक्य, मोती, शंख शिला और प्रवाल आदि की अत्यंत वृद्धि होने लगी। . तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के माता पिता ने यह बात जान कर उनके जन्म के दस दिन व्यतीत हो जाने के बाद ग्यारहवें दिन शुद्ध हो जाने पर प्रचुर मात्रा में अशन, पान, खादिम और स्वादिम पदार्थ बनवाए। चतुर्विध आहार तैयार हो जाने पर उन्होंने अपने मित्र, ज्ञाति, स्वजन और संबंधी वर्ग को आमंत्रित किया और बहुत से शाक्य आदि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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